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" त्वमम्बा त्वं बन्धुस्त्वमसि जनकस्त्वं प्रियसुहृत्, त्वमीशस्त्वं वैद्यस्त्वमसि च गुरुस्त्वं शुभगतिः । त्वमक्षि त्वं रक्षा त्वमसव इति त्वं मम न कि, ततो मां त्रासीष्ठाः कठिनगदवृन्दादिततनुम् ॥२१॥।”
भगवान् के चरणकमलों से अलग होकर क्या-क्या दुःख नहीं भोगने पड़ते ? अतः वे गुरुकृपा से पुनः भगवच्चरण की शरण में आकर अपने सम्पूर्ण दारिद्र्य और दैन्य को जानते हुए भी अपने को धन्य मानते हैं:
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"धिया होनो दीनः कुकृतशालीनः सुकृपणो, गुणैर्वान्तस्तान्तस्तत भव महावर्त पतितः । विलग्नो मग्नोऽहं तव पदयुगे तद्गुरुकृपाकृपारणी कृत्तान्तःकरणशरसा त्वं मम परम् ॥ ७॥ : "
जिनवल्लभ के स्तोत्रों में सर्वत्याग की भावना के साथ-साथ दैन्यप्रदर्शन, आत्मनिवेदन तथा भक्तहृदय का करुणक्रन्दन मिलता है । भवसागर के अनेक संकटों और क्लेशों भषिका से पीडित जीव के लिये ताण पाने और शान्तिलाभ प्राप्त करने के लिये एकमात्र शरण्य प्रभुचरण ही हैं। अतः भक्त अपने भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता के सामने अपने को अत्यन्त दीन-हीन और मलीन पाकर अपने हृदय की चीत्कार को जब छुपाने में विवश हो जाता है, तो उसके हृदय से जो वाणी निकलती है वह किस पाषाण हृदय को द्रवीभूत न कर देगी ? इस दृष्टि से जिनवल्लभ को भक्ति का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप संभवतः महाभक्तिगर्भा सर्वज्ञविज्ञप्तिका में देखा जा सकता है । भगवान् और भक्त में, सर्वज्ञ और अज्ञ में जो भेद है उसको प्रकट करते हुए वे कैसे सरल शब्दों में कहते हैं:
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तुह जिण प्रांत प्रणुवम गुणगुणणे जडमई प्रसत्तोहं । किंतु दुहत्तो किर तक्खयाय नियदुक्कयं कहिमो ॥ २ ॥
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इय पुणरुत्तमरणंत दुरंतभवचक्कगो किलिस्संतो ।
लोए पइक्खपएसु जानो य मनो य बहुसोहं ॥ १३ ॥
कवि को पूर्ण विश्वास है कि वह कितना ही वाम पामर या पलित क्यों न हो, परन्तु भगवच्चरण में ऐसी शक्ति है जिससे कि सब का उद्धार निःसंदेह हो सकता है । इसीलिये वह भव- निवारण के लिये पुनः पुनः भगवान् के सामने पुकार करता है:
तुह दंसरणं निवारइ कारइ मध्वत्थवत्थुवच्चासं । चररणकरणम्मि सद्धि विद्ध सड़ दंसइ कुमग्गं ॥३३॥ ईसा विसाय-मच्छर- हरिसा-मरिसाइवि विहरू बेहि । फुडमद जालिश्रो इव वामोऽह इम जिणिद तो ॥३४॥ मोहमहारिपरवसं जयबंधव रक्ख म खमाविजनो । पिच्छता न हु पहुणो भिच्चमुबेहं तिवसरणगयं ||३५||
[ वल्लभ-भारती