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"यत्कान्तेऽवनतेप्यहं स्मरगुरूद्दिष्टं सखी प्राथितं, कोपान्नकरवं तदेतदुदितं पाप स्फुटं यत्नतः । कर्पू रोऽसिकरणायते मृगमदश्रीः कालकूटायते,
शीतांशुर्दहनायते कुवलयस्रक कालपाशायते ॥४७॥" कहीं-कहीं पर काव्य के प्रांगण में भी पाण्डित्य-प्रदर्शन के प्रलोभन का संवरण नहीं किया जा सका है । निम्नलिखित पद्य में अलंकारों की सुन्दर छटा के साथ-साथ कवि की इसी प्रवृत्ति का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत है:
"सत्यं सख्यविकल्पदृक् क्षणिकधीर्नष्टायकः सौगतः, प्रामाण्येन न योऽब्रवीत्यवितथज्ञाने विकल्पस्मृती। यस्मादस्मि विकल्पतल्पशयितं प्रेयांसमङ्गस्पृशं, स्मत्वा केलिकलां च तां रतिफलं विन्दामि निन्दामि च ॥३३॥"
स्तोत्र-साहित्य कवित्व की दृष्टि से स्तोत्र-साहित्य में आचार्य जिनवल्लभ का मन सब से अधिक रमा हुआ जान पड़ता है। स्तोत्रों में जैसा उक्ति वैचित्य, अलंकार-वैविध्य तथा छंद-बाहुल्य मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं। जैसा कवि ने स्वयं कहा है, अपनी कवि-प्रतिभा को व्यक्त करने के लिये उसने जो सर्वप्रथम माध्यम चुना वह एक स्तोत्र ही था। अपने इष्ट श्री पार्श्वनाथ के इस स्तवन में उन्होंने अपने जिस भक्त हृदय का परिचय दिया है, उससे इस रहस्य का पता सहज ही चल सकता है कि वे स्तोत्र-साहित्य में इतने क्यों सफल हुए हैं:
'न नपपदवी नार्थावाप्ति न भोगसुखं न वा,
सुरपतिपदं त्वां याचेऽहं न वा शिवसम्पदाम् । - महनि निशि च स्वप्ने बोधे स्थिते चलिते बने
सदसि हृदये भक्त्यद्वंत ममास्तु परं त्वयि ॥३१॥" उन्हें न अर्थ चाहिये और न भोग, न इहलोक का राज्य चाहिये न व लोक्य का। वे तो रातदिन, सोते-जागते, चलते-फिरते, सर्वत्र और सर्वदा अपने भगवान् की अनन्य भक्ति में ही रत रहना चाहते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि संसार में फंसने का क्या परिणाम होता है। एक वा अनेक भवों में भ्रमण करने के पश्चात् अब उनका मन श्रीजिनेश्वर के चरणों का चंचरीक बन पाया है:
"गतोऽहं संसारे नर-नरक-तिर्यक-सुरभवेध्वनेकेष्वेव त्वां जिनमलभमानः क्वचिदपि। इदानीं यौष्माकं चरणकमलं संश्रितवतो,
द्विरेफस्येवाभून्मनसि परमा निवृतिरतः ॥४॥" कवि जिनवल्लभ के लिये भगवान् ही माता है और भगवान् ही बन्धु, पिता, मित्र, स्वामी, वैद्य तथा गुरु हैं। अधिक क्या कहा जाय वही उनके स्र्वस्व हैं । इसलिये वे सदैव उन्हीं की शरण में रक्षा के लिये जाते हैं:वल्लभ-भारती ]
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