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इसकी व्याख्या कवि ने इस प्रकार की है:
"शंके सुभ्रु ! सुधारसविरचितं ते कालकूटच्छटागर्भे मौक्तिकदामवन्मरकतश्री रोचनं लोचनम् । यन्मामन्तरचारिमृगसुभगश्वेता बजपत्र प्रभाधिक्षेपीदमनङ्गसङ्ग सपदि प्रीणाति मीनाति च ॥ १०१ ॥ | "
और नायिका की प्रेम द्रव से आर्द्र तथा लाजभरी दृष्टि युवकों के लिये काम कर बैठती है; इस विषय में कवि की उक्ति कितनी विलक्षण है:
न मालूम कौनसा
" साकूतोत्कलिकाः सकौतुक करणा: प्रेमद्रवार्दास्तव, क्रीडन्त्यस्तरलाक्षि दिक्षु निविडव्रीडा जडा दृष्टयः । चेतश्चञ्चलयन्ति कायलतिकामुत्कम्पयन्ति क्षणात् चक्षुः शीतलयन्ति किं तदथवा यूनां न यत् कुर्वते ।। १०२ ।। " जिनवल्लभ की कविता प्राय: प्रसाद गुण सम्पन्न है । कहीं-कहीं तो भाषा की सर
लता ने इस काव्य-गुण को बहुत ही आकर्षक बना दिया है। इसका सब से अच्छा उदाहरण निम्नलिखित श्लोक में देखा जा सकता है:
"न ताः काश्चिद्वाचः क्वचन न च ताः काश्चन कलाः, • स नोपायः प्रायः स्फुरति न तदस्त्यक्षरमपि । यतोऽन्योन्यं यूनां विरहभवभावव्यतिकरं परं वक्तुं शक्तः कथमपि कदापि क्वचिदपि ।। ११५ ।। "
शृंगारशतक में अलंकारों का प्रयोग भी अत्यन्त सुन्दर और स्वाभाविक हुआ है । शब्दालंकारों में यों तो श्लेष और यमक का प्रयोग भी प्रचुरमात्रा में मिलता है परन्तु अनुप्रास का प्रयोग बहुत ही मनोरम हुआ है । "पीतं पीतमथो सितं सितमिति" में जो स्वाभाविकता है वही आप "प्र ेमप्रसन्नः प्रियः” में देख सकते हैं । विषय की अनुकूलता तथा स्वाभाविक सरलता को ध्यान में रखते हुए कवि ने जो अनुप्रास प्रयुक्त किये हैं उनका एक अच्छा उदाहरण निम्नलिखित पद्य में देखा जा सकता है:
"भ्रमद्भ्रमरविभ्रभोद्मटकटाक्षलक्षाङ्किता, दृशामसदृशोत्सवाश्चतुरकुञ्चितभ्रूलताः । स्फुरत्तरुणिमद्र मोल्लसदनल्पपुष्यश्रियो हरन्ति हरिणीदृशां कमपि हन्त ! हेलोदयाः || ५०||
अर्थालङ्कारों में भी रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति आदि का बहुत ही सुन्दर और सफल प्रयोग किया गया है । कहीं "संफुल्लशेफालिका" कुसुम के समान " नीविग्रन्थि " सरक जाती है और कहीं कोई "पुण्डरीकवदना लीलानिमीलित" नयना होकर दिखाई पड़ती है । कामदेव के प्रताप से वस्तुओं का जो स्वभाव विपर्यय हो जाता है उसका वर्णन कवि की अलंकार-युक्त वाणी से निम्नलिखित पद्य में देखियेः—
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[ वल्लभ-भारती