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के लिये जिस समन्वित शब्द-योजना का प्रयोग किया है उसे निम्नलिखित पद्य में देखियेः
"मानिन्याः कुटिलोत्कटभ्र सहसा सन्दष्टदन्तच्छदा, स्वेदातडूभयेन मोचनकृते हुङ्कारगर्भ मुखम् । काम केलिकलौ दृढाङ्गघटनानिष्पेषपीडोत्त्रस
त्तियग्मानकृतात नादवदिव प्रीणाति यूनां मनः ।।१३।।" इसी प्रकार कुपिता नायिका के मुखसौन्दर्य का वर्णन भी उल्लेखनीय है:
"भुग्नभ्रस्फुटरक्तगण्डफलक प्रस्यन्दि दन्तच्छद, लोललोहितचक्षुगिरदिव प्रौढानुरागं हृदः । सर्वाकारमनोहर सुतनु! ते कोपेऽपि पश्यन्मुखं,
दूयेनाऽस्मि यतस्ततोयमधुना मानानुबन्धेनं ते ।।८।।" लक्षणा और व्यञ्जना के सह रे घोर से घोर शृंगार को भी शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किये बिना ही किस प्रकार काव्य में चित्रित किया जा सकता है उसका ज्वलन्त उदाहरण उस वर्णन में देखा जा सकता है, जो उन्होंने संभोगशृगार के विस्तृत वर्णन में किया है। संभोग के पश्चात् नायक और नायिका की जो विलक्षण अवस्था हो जाती है, उसका सजीव चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है:
कृत्वा रागवदुद्धतं रतमथो मीलदृशं निःसहां, श्रोणीपार्श्वसमस्तहस्तवितताघातेप्यसंज्ञामिव । दृष्ट्वा मां सखि मूछिता किमु मृता सुप्ता नु भीताथवे
त्याकूताकुलधोरिव द्रुतम भूत् सोऽपि प्रियोऽस्मत् समः ।।११।।" ये तो रही संभोगोपरान्त शरीर की अवस्था, परन्तु उस समय की अनिर्वचनीय रसानुभूति का चित्रण भी जिनवल्लभ ने चित्रित करने का प्रयत्न किया है :
"कान्ते ! कल्पितकान्तमोहनविधावाऽऽनन्दसान्द्रद्रवदागावेगनिमीलिताक्षियगला वीक्षेन तं यद्यपि । नेत्रानन्दकर तथापि सखि मे तच्चुम्बनालिङ्गन
प्राक् संक्रान्त इव स्फुरत्यनुपमः कश्चिद् रसश्चेतसि ।।११२।।" __ शृगार-शतक में नारी के सौन्दर्य का वर्णन भी यत्र तत्र विशद तथा सहजरूप में मिलता है। नायिका की कटाक्षछटा दूध के समान श्वेत तथा तरल है और उसकी दन्तज्योत्स्ना आकाश में मंडलाकार फैलती हुई सपूर्ण विश्व को अपनी श्वेतिमा से आप्लावित कर रही है। फिर वह अभिसार के लिये चन्द्रोदय की प्रतीक्षा क्यों करे:
"मुग्धे ! दुग्धरिवाशा रचयति तरला ते कटाक्षच्छटाली, दन्तज्योत्स्नापि विश्व विशदयति वियन्मण्डलं विस्फुरन्ती । उत्फुल्ल गंडपाली विपुलपरिलसत् पाण्डिमाडम्बरेण,
क्षिप्तेन्दो कान्तमद्धाभिसर सरभसं किं तवेन्दूदयेन ।।७।।" एक साथ ही प्रसादन और मारण में दक्ष नायिका के लोचन भी कितने विचित्र हैं,
वल्लभ भारती]
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