SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " नास्ते मालिन्यमीतेरखिलगुणगणः सन्निधानेऽवि येषां, येषां सन्तोषपोषः सततमपि सतां दूषरणोद्घोषणेन । तेषामाशीविषाणामिव सकलजगन्निनिमित्ताऽहितानां कर्णे कर्णेrपानां विषमिव वचन कः सकरणः करोति || ६ || " वस्तुतः शृंगार को पाप कहकर छुट्टी नहीं ली जा सकती । शृंगार नर-नारी सम्बन्ध का एक अमिट सत्य है और वह कितना भी कटु, कठिन अथवा घोर सत्य क्यों न हो, परन्तु किसी तत्त्वज्ञानी के लिये उसके सामने आंख मूंद लेने से काम नहीं चल सकता । आचार्य जिनवल्लभ श्रृंगार के इस महत्त्व को समझते थे और वे जानते थे, उन 'पुण्यपण्यापण' भों को जो शृंगार की व्यापक सार्वभौमता की उपेक्षा करने का व्यर्थ प्रयत्न करते हैं । अतः शृंगारशतक के प्रारंभ में ही कवि ने स्पष्टतया इस बात को स्वीकार किया है: - "कोऽयं दपकरूपदर्पदलन कः पुण्यपण्यापणः, कस्त्रैलोक्यमलङ्करोति कतमः सौभाग्यलक्ष्म्यावृतः । सोत्कण्ठ तव कण्ठकाण्डकुहरे कुण्ठः परं पञ्चमो मुग्धे यस्य कृते करे च विलुत्यापाण्डुगण्डस्थलम् ||७ ।” अतः आचार्य जिनवल्लभ ने अपने शतक में श्रृंगार का जो साँगोपांग चित्रण किया वह किसी प्रकार भी साधु-जीवन का अतिक्रमण नहीं करता । उन्होंने श्रृंगार के सभी स्वरूपों का वर्णन किया और समस्त हाव, भाव, विभाव, अनुभाव और सचारीभावों का परिचित्रण किया, परन्तु उनके मन में न कोई भय था और न थो कोई शका अथवा जुगुप्सा । शृंगारकाव्य की साधना उनकी दृष्टि में उसी निर्मल मन से की जा सकती है जिससे कि तत्वज्ञान का उहापोह अथवा स्तोत्र - साहित्य का सृजन या चरित-काव्य का गायन । इतिहास में जनक जैसे गृहस्थ राजा तो सुने गये हैं जो श्रृंगार और वैराग्य दोनों को एक साथ लेकर चले हों, परन्तु बचपन से ही वैराग्यवृत्ति को लेकर मुनि-जीवन में दीक्षित होने वाले और नन्हीं बालिका तक को भी स्पर्श न करने वाले साधुओं में शान्त तथा श्रृंगार के बीच काव्यगत समन्वय स्थापित करने वाले आचार्य जिनवल्लभ अद्वितीय हैं। भर्तृहरि ने अवश्य ही वैराग्यशतक और श्रृंगारशतक लिखकर ऐसा ही प्रयत्न किया था, परन्तु इस विषय में हम यह नहीं भूल सकते कि भर्तृहरि विरक्त होने से पहिले शृंगार का पूर्ण अनुभव भी राजमहलों में कर चुके थे । परन्तु आचार्य जिनवल्लभ का शृंगारशतक एक प्रकार से एक अलौकिक प्रयत्न नहीं तो अपूर्व प्रयत्न अवश्य है; क्योंकि उन्हें श्रृंगार का साक्षात् अनुभव बाल- ब्रह्मचारी होने से कभी नहीं हुआ था । अमरुशतक लिये कहा जाता है कि बाल ब्रह्मचारी शंकराचार्य उसे तब लिखा, जब वे परकायाप्रवेश करके गार का साक्षात् अनुभव कर सके, पर जिनवल्लभ को इसकी भी आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने केवल श्रृंगार साहित्य का अध्ययन करके ही अपने शृंगारशतक की रचना कर डाली । फिर भी श्रृंगारशतक को पढ़ने से कहीं भी कोई रिक्तता या कमी नहीं दिखाई पड़ती है । भाषा में प्रवाह है और शब्द-योजना भावानुकुल है । मानिनि के कुटिल-भ्रूभंग, दन्तदंशन तथा हुंकार भी युवकों के मन को प्रसन्न करने वाला है - इस बात को प्रकट करने १३० ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy