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उत्सूत्र-प्ररूपक
षट् कल्याणक के अतिरिक्त एक विषय और है जिसको लेकर कुछ प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों ने जिनवल्लभगणि पर 'उत्सूत्र - प्ररूपक' होने का दोषारोपण किया है । यह विषय है ' संहनन' का ।
आ० जिनवल्लभ ने सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण की १४ वीं कारिका के उत्तरार्द्ध में संहनन के अधिकार में लिखा है:
"सुत्त सत्तिविसेसो संघयणमिहट्ठिनिचउ ति ॥ १४ ॥” इस पद्य में उल्लिखित “सुत्ते सत्तिविसेसो" पर प्रज्ञापनासूत्र की टीका करते हुए ( पृ० ४७० ) आचार्य मलयगिरि लिखते हैं :
"तेन यः प्राह सूत्रे शक्तिविशेष एव संहननमिति । तथा च तद्ग्रन्थः - "सुत्त े सत्तिविसेसो संघयणं" इति स भ्रान्तः । मूलटीकाकारेणापि सूत्रानुयायिना सहननस्यास्थिरचनाविशेषात्मकस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्तु एकेन्द्रियाणां सेवार्त्तसंहननमन्यत्त्रोक्त ं तत् 'टीकाकारेण समाहितं । औदारिकशरीरत्वात् उपचारत इदमुक्तं द्रष्टव्यं न तु तत्त्ववृत्त्येति । यदि शक्तिविशेषः स्यात् ततो देवानां नैरयिकाणां संहननमुच्येत । अथ च ते सूत्र े साक्षादसंहनिन उक्ता इत्यलं उत्सूत्रप्ररूपकविस्पन्दितेषु ।”
पुनः
श्रीमलयगिरि के 'उत्सूत्रप्ररूपक विस्पन्दितेषु' शब्द पर स्व० श्री सागरानन्दसूरि ने साढे तीन पृष्ठ की टिप्पणी लिखकर और श्री प्रेमविजयजी ( वर्तमान विजयप्रेमसूरि) ने सार्धशतक की प्रस्तावना में इसी विषय पर ढाई पृष्ठ लिख कर जो गाली गलोच' किया है वह सर्वविदित है । यद्यपि यहाँ 'ईंट का जवाब पत्थर' से देने का विचार कदापि नहीं, परन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने के लिए न केवल आचार्य मलयगिरि आदि के आक्षेपों की परीक्षा करना आवश्यक है, अपितु उससे भी पूर्व जिनवल्लभगणि के उस कथन का भी स्पष्टीकरण कर लेना आवश्यक है जो इन आक्षेपों का लक्ष्य है ।
श्री जिनवल्लभसूरि ने जो शक्तिविशेष को संहनन माना है वह शास्त्रसम्मत है या नहीं ? इसका निर्णय करने के लिए यह अधिक अच्छा होगा कि यहां पर यह देख लिया जाय कि अन्य मान्य आचार्यों ने क्या कहा है। श्री जिनवल्लभसूरि और श्री मलयगिरि के पूर्ववर्ती आचार्य आप्तव्याख्याकार श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक सूत्र की बृहद्वृत्ति ( आगमोदय समिति, सूरत से प्रकाशित पृष्ठ ३३७.१ ) में लिखा है:
" इह च इत्थंभूतास्थिसञ्चयोपमितः शक्तिविशेषः संहननं उच्यते, न तु अस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथम संहननयुक्तत्वात् ।" अर्थात् इस प्रकार अस्थिसंचय से युक्त शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं, केवल अस्थिसंचय को नहीं; क्योंकि देवताओं को अस्थि रहित होने पर भी प्रथम संहनन ( वज्रर्षभनाराच ) २ युक्त होने वाला कहा गया है ।
१. अपरिणत भगवत् सिद्धान्तसारो वावदूक : सिद्धान्त बाहुल्यमात्मनः ख्यापयन्नेवं प्रललाप | कुमार्गगमृगसिंहनादीयं वचनम् ।
२. जैन साहित्य में संहनन छह प्रकार के माने गये हैं : -- (१) बज्रऋषभनाराच, (२) वज्रनाराच, (३) नाराच, (४) अर्धनाराच, (५) कीलित, (६) सेवा ।
वल्लभ-भारती ]
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