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अतएव सुखसीलतानुरागादेरसङ्घमपि सङ्घ इत्यभिदधतां प्रायश्चित्तं प्रतिपादितं सिद्धान्ते । यदाह -
अस्संघ संघ जे, भांति रागेण श्रहव दोसेण । छेो वा मूलं वा, पच्छित्तं जायए तेसि ॥ १॥ तस्माद्युक्तं क्रूरतया प्रकृतसङ्घस्य व्याघ्रतया ( नि ) रूपणम् ।
गुणसमुदाय, संघ, प्रवचन तथा तीर्थ शब्द एकार्थक हैं तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों से परिपूर्ण साधु के समुदाय को यहां संघ कहा है और वह संघ बहुमाननीय है । किन्तु उन्मार्गस्थित, सन्मार्ग का विनाशक, जिनाज्ञा का नाश कर के स्वच्छन्द रूप से प्ररूपित चैत्यवासी समुदाय, जो सुख - लोलुपी है उसको यहाँ संघरूप से स्वीकार नहीं किया है । अर्थात् उन्मार्गप्ररूपक चैत्यवासी समुदाय संघ को ही व्याघ्र की उपमा दी है किन्तु तीर्थ- सम्मत संघ को नहीं; जो यथार्थ ही है । और इसी प्रकार के संघ को जब आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे समर्थ विद्वान् भी चैत्यवास का खंडन करते हुए, “ (आज्ञावियुक्तः) शेषन ङ्घः अस्थिसंघात एव” कह कर हड्डियों, का समुदाय मात्र ही है - प्रतिपादन करते हैं तो इस वर्त्तमानीय ( चैत्यवासी) संघ को जो व्याघ्र की उपमा दी है वह अयुक्त प्रतीत नहीं होती है ।
दूसरी विचारणीय वस्तु यह है कि इस टीका में आये हुये “ऐदयुगीनसङ्घप्रवृत्तिपरिहारेण च सङ्घबाह्यत्वप्रतिपादन ममीषां भूषणं न तु दूषणं ।" वाक्य का प्रश्रय लेकर जो प्रतिपादन करते हैं कि 'जिनवल्लभ संघ बहिष्कृत थे'-- किन्तु उन्हें टीकाकार के पूर्ण शब्दों का ध्यान रखना चाहिये कि टीकाकार जो संघबाह्यत्व को भूषण कहता है उसका आशय क्या है ? देखिये टीकाकार के पूर्णवाक्य:
"ऐदयुगीन सङ्घप्रवृत्तिपरिहारेण च सङ्घबाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं, न तु दूषणम् । तत्प्रवृत्तेरुत्सूत्रत्वेन तत्कारिणां दारुणदुर्गतिविपाक त्या तत्परिहारेण प्रकृतसङ्घबाह्यत्वस्यैव तेषां चेतसि रुचितत्वात्तदन्तर्भावे तु तेषामपि तत्प्रवृत्तिवर्तिष्णुतयाऽनंतभवाटवीपर्यटन प्रसङ्गात् । आधुनिक सबाह्यत्वेनैव तेषां गुणित्वं, तथा च तेषूच्छेदबुद्धिर्महापापीयसामेव भवति । तस्मात्तेषु मुक्यथिनां प्रमोद एव विधातव्यो न तनीयस्यापि द्वेषधीरिति व्यवस्थितम् ।"
उपरि उल्लिखित टोकाकार के शब्दों से यह स्पष्ट है कि जिस चैत्यवासी संघ को हमने व्याघ्र की उपमा दी है, उस संघ में यदि जिनाज्ञानुसार चालित, सुविहित साधु-समुदाय नहीं रहता है अथवा ये चैत्यवासी कहते हैं कि 'ये सुविहित साधु संघ बाह्य हैं' तो वह सुविहित गण के लिये दूषण नहीं है किन्तु भूषणरूप ही है । क्योंकि यदि सुविहित गण उस संघ को स्वीकार करता है और उसकी आम्नायानुसार चलता है तो वह संसार का वृद्धिकारक है । वस्तुतः आचार्य जिनपतिसूरि का यह कथन उपयुक्त ही है, अन्यथा आचार्य हरिभद्रसूरि और आचार्य जिनेश्वरसूरि जैसे प्रौढ सुविहित, चैत्यवासियों की आचरणाओं का क्यों विरोध क ते ? विरोध के कारण यह वस्तु भी उपयुक्त है कि चैत्यवासी समुदाय इन सुविहितों को सवा करता है तो वह सुविहितों के लिये दूपणरूप नहीं है; क्योंकि उनका मतव्यामोह एकान्त दृष्टि से कहने को उन्हें बाधित करता है । इससे यह सिद्ध है कि चैत्यवासी संघ से जिनवल्लभसूरि आदि सुविहित बहिष्कृत अवश्य थे किन्तु थे वे सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रमुख ।
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[ वल्लभ-भारती