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इसी प्रकार सर्वगच्छमान्य नवाङ्ग-टीकाकार श्री अभयदेवसूरि स्वप्रणीत स्थानांगसूत्र की टीका (आगमोदय समिति सूरत से प्रकाशित पृष्ठ ३५७.१) में लिखते हैं:
"सहननं अस्थिसञ्चयः वक्ष्यामाणोपमानोपमेयः, शक्तिविशेष इत्यन्ये।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव दोनों ही शक्तिविशेष को किसी न किसी रूप में 'संहनन' का तत्त्व स्वीकार करते हैं।
__और देखिये, इसी सार्द्धशतक प्रकरण के टीकाकार चन्द्रकूलीय श्री धनेश्वरसूरि (जिनका सत्ताकाल आचार्य मलयगिरि से पूर्व है) भी इस पद्य की टीका करते हुए इसी मत को पुष्ट करते हैं :
"सूत्र-आगमे शक्तिविशेषः संहननमुच्यते ! कोऽभिप्रायः ? वज्रर्षभनाराचादिशब्दस्य संहननाभिधायकस्य शक्तिविशेषाभिधायकतया व्याख्यातत्वात् शक्तिविशेषः संहननमागमे प्रोच्यते । ईदृशं च संहननं देवनारकयोरपीष्यत एव तेन देवा वज्रर्षभनाराचसंहनिनो नारकाः सेवार्तसंहनिन इत्यागमाभिप्रायतो बोद्धव्यम् ।'
. और इसी शक्तिविशेष संहनन-परंपरा को कर्मग्रन्थकार प्रसिद्ध आचार्य देवेन्द्रसूरि ने भी अपने शतक नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। ऐसी अवस्था में उपरि उल्लिखित शास्त्रीय प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि शक्तिविशेषरूप संहनन की मान्यता व्यापक है; यह केवल जिनवल्लभ की अपनी प्ररूपणा नहीं।
इस प्रकार इन आचार्यों के मतों को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्तिविशेष को भी संहनन माना जाता था। अतएव यदि शक्तिविशेष को संहनन मानना उत्सूत्र प्ररूपणा कही जाय तो उक्त मान्य आचार्यों को भी उत्सूत्र-प्ररूपक होने का लांछन लगाया जा सकता है। परन्तु इन आचार्यों को उत्सूत्र-प्ररूपक कहने का साहस न तो आ० मलय गिरि को ही था और न उनके चरण-चिह्नों पर चलकर जिनवल्लभ को कोसने वाले आधुनिक आचार्यों को ही है।
___ इसके अतिरिक्त एक बात और है जो बड़ी दुविधा में डालने वाली है। आचार्य मलयगिरि एक तरफ तो स्वप्रणीत जिनवल्लभीय 'आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण' की टीका करते हए अवतरणिका में "न चायं आचार्यो न शिष्ट इति3" कहकर जिनवल्लभसूरि की गणना शिष्ट-आचार्यों की कोटि में करते हैं और दूसरी तरफ प्रज्ञापनासूत्र की टीका में जैसा कि प्रारम्भ में कह चुके हैं, उन्हें उत्सूत्र-प्ररूपक कहते हैं। ऐसे आप्त-टीकाकार आचार्य के वचनों में विरोध क्यों ? प्रमाणों के अभाव में इस प्रश्न का कोई युक्तियुक्त उत्तर तो यहां
१ जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर से प्रकाशित पृष्ठ १४ २. “यत्त, देवेन्द्रनतपादपङ्कजः श्रीमद्देवेन्द्रसूरिपादैः स्वोपज्ञशतकवृत्ती एवमेवोक्त तदप्येतद् ग्रन्थानुसारेणानुमीयते।"
(प्रेमविजयजी लिखित सार्धशतक प्रस्तावना पृष्ठ ३) ३. 'इह हि शिष्टाः क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमानाः सन्त इष्टदेवतास्तवाभिधानपुरस्सरमेव प्रवर्तन्ते, न
चायं प्राचार्यों न शिष्ट इति ।' (षडशीति टीका, प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित पुष्ठ १)
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