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________________ नहीं दिया जा सकता, परन्तु यह विषय विद्वचिन्त्य अवश्य है । अतः अन्ततोगत्वा किन कारणों के वशीभूत होकर श्रीमलयगिरि को इन शब्दों का प्रयोग करना पड़ा, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। विद्वानों के लिये इतना ही विचारणीय और दुविधाजनक प्रश्न यह भी है कि आचार्य मलयगिरि ने जिनवल्लभसूरि के “सुत्ते सत्तिविसेसो" के स्थान पर “सुत्ते सत्तिविसेस एव" कैसे पढ़ लिया? दूसरा यह भी पता नहीं चलता कि आचार्य मलयगिरि ने अपने वक्तव्य में 'मूलटीकाकारेणापि' शब्द का प्रयोग किस टीकाकार के लिये किया है ? यदि हम मूलटीकाकार शब्द से प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सूत्रों के टीकाकार आचार्य हरिभद्र को ग्रहण करते हैं तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या आचार्य मलयगिरि ने हारिभद्रीय आवश्यक टीका का अवलोकन नहीं किया था ? जिसमें कि जिनवल्लभगणि के मत का स्पष्ट समर्थन प्राप्त होता है ! यदि किया होता तो, वे स्वयं एकपक्षीय सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने वक्तव्यों में कैसे करते ? और यदि हम मूलटीकाकार शब्द से सार्द्ध शतक टोकाकार आचार्य धनेश्वर का ग्रहण करते हैं तो, इस टीका में भी कहीं पर 'एव' का प्रयोग न होने पर भी आचार्य ने किस आधार से 'एव' का प्रयोग किया? चिन्त्य है । आचार्य मलयगिरि एक सूविज्ञ और श्रद्धास्पद व्याख्याकार हैं, अतः यह कहना भूल होगा कि उन्होंने अज्ञानवश, भ्रमवश या ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित होकर यह सब लिख दिया। अतः यह प्रश्न भी ज्यों का त्यों रह जाता है जिसका समुचित उत्तर प्रमाणाभाव से नहीं दिया जा सकता। . साथ ही मलयगिरि के ये शब्द “उपचारत इदमुक्त न तु तत्त्वदृष्ट्या" युक्तियुक्त नहीं कहें जा सकते; क्योंकि आचार्य जिनवल्लभ स्वयं उपचार से ही शक्तिविशेष को संहनन स्वीकार करते हैं. निश्चय से नहीं। यदि उन्हें औपचारिक प्रयोग इष्ट न होता तो वे 'सत्तिविसेसो संघयणं' न कह कर 'सुत्ते सत्तिविसेसच्चिय संघयणं' कहते या ‘एवकार' का प्रयोग करते, अधिक इष्ट रहता; किन्तु ऐसा नहीं है। * अस्तु आचार्य मलयगिरि की टीकाओं में पाये जाने वाले विरोधाभास और विप्रतिपत्ति के विषय में मौन धारण कर लेने पर भी जिनवल्लभगणि के आलोचकों सागरानन्दसरि और विजयप्रेमसूरि के कथन को साम्प्रदायिक द्वषभाव से प्रेरित हुआ मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं दीखता । आश्चर्य होता है कि उत्कृष्ट संयम, वीतरागता और सत्य तथा अहिंसा कां व्रत लेने के पश्चात् भी इन सज्जनों ने मलयगिरि की टीकाओं में पाये जाने वाले विरोधाभास पर कैसे आंखें मूंद लीं और कैसे निकले उनके मुख से जिनवल्लभगणि के लिये वे शब्द, जिनको कि किसी प्रकार भी सज्जन-मुखमंडन नहीं कहा जा सकता। पिण्डविशुद्धिकार एक और विवादग्रस्त प्रश्न है पिण्डविशुद्धि प्रकरण के कर्तृत्व का। पिण्डविशुद्धि प्रकरण जैसा कि आगे बतलाया गया है, जिनवल्लभगणि के उन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में से है जो गच्छ विशेष की सीमा को लांघकर सर्वमान्य हो चुके हैं और जिन पर विभिन्न गच्छीय आचार्यों ने टीका लिखकर इन्हें गौरवान्वित किया है । इस ग्रन्थ की लोकप्रियता और महत्ता वल्लभ-भारती ] [८१
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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