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________________ इससे प्रकट है कि लेखक की मृत्यु के ११ वर्ष पश्चात् ही इस पर टीकायें लिखी जानी प्रारंभ हुई और यह क्रम १२वीं से लेकर १७वीं शताब्दि तक बराबर चलता रहा । परन्तु दुःख है कि साम्प्रदायिक भेद-भाव से प्र ेरित होकर कुछ विद्वानों के अहंकार को यह सहन नहीं हुआ कि किसी इतर - गच्छीय लेखक की कृति को इतना सन्मान क्यों मिले ? इसीलिये १७वीं शती के उत्तरार्द्ध में उपाध्याय सोमविजयजी गणि अपने "सेनप्रश्न" में जिनवल्लभ को इसलिये इस ग्रन्थ का कर्त्ता नहीं मानते कि उनके पौषधाविधिप्रकरण में पौषध के प्रसंग में भोजन का तथा कल्याणक स्तोत्र में महावीरप्रभु के पांच कल्याणकों का ही उल्लेख मिलता है जो कि खरतरगच्छीय मान्यताओं के विरुद्ध होने से जिनवल्लभगण द्वारा नहीं लिखी जा सकती थी : "पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवल्लभगणिः खरतरोऽन्यो वा ? इतिप्रश्नः, अनोत्तरम् - जिनवल्लभगणेः खरतरगच्छसम्बन्धित्वं न संभाव्यते, यतस्तत्कृते पौषधविधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात्, कल्याणकस्तोत्रे च श्रीवीरस्य पञ्चकल्याणक प्रतिपादनाच्च तस्य सामाचारी भिन्ना, खरतराणां च भिन्नेति । " परन्तु जैसा कि इसी पर टिप्पणी करते हुए पं० लालचन्द्र भगवान् गांधी ने अपभ्रंश -काव्यत्रयी की प्रस्तावना में लिखा है, "सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर यह आक्षेप समीचीन प्रतीत नहीं होता' और जैसा कि अन्यत्र बतलाया जा चुका है, क्योंकि उनके प्रकृत सन्दर्भों को देखने से उक्त दोनों आक्षेप निराधार प्रतीत होते है । इसके अतिरिक्त सुमतिगणि जहां गणधर सार्धशतक की वृत्ति में जिनवल्लभगणि के अन्य ग्रन्थों के साथ-साथ पिण्डविशुद्धि को भी समग्र गच्छाहत कहते हैं वहीं धनेश्वराचार्य सार्द्धशतक की टीका में 'अभयदेवसूरिशिष्येण मतिमता जिनवल्लभेन' लिखकर यह प्रमाणित करते हैं कि सुमति गणिका लिखना पूर्ण सत्य है, गच्छ ममत्व से मृषा अत्युक्ति नहीं, तो फिर भ्रम या प्रश्न का अवकाश ही कहां ? पिण्डविशुद्धिदीपिकाकार आचार्य उदयसिंहसूरि (र०स० १२६५) जैसे भिन्न- गच्छीय प्रौढ-विद्वान् भी पिण्डविशुद्धि के प्रणेता का 'सुविहितसूत्रधारः' विशेषण लगाते हैं जो निश्चित रूप से खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि से ही सम्बन्धित है; क्योंकि सुविहित- पथ-प्रकाशक या विधिमार्गप्ररूपक विशेषण धर्मसागरजी भी प्रवचन- परीक्षा में खरतरगच्छीय जिनवल्लभ के लिये ही स्वीकार करते हैं । अतः प्रकरणकार वे ही हैं यह भलीभांति सिद्ध होता है :'सुविहितविधिसूत्रधारः स जयति जिनवल्लभो गणिर्येन । पिण्डविशुद्धिप्रकरणमकारि चारित्रनृपभवनम् ।" X X X X जगडु कवि (१२७८ - १३३१ ) स्वप्रणीत सम्यक्त्वमाई चउपई में ( जब ४२ दोष रहित शुद्ध १. " किन्तु एतत् सुदीर्घं दृष्ट्या चित्तने न समीचीनं प्रतिभाति" अपभ्रंश काव्यत्रयी प्रस्तावना पृ० २६ २. देखें, षट्कल्याणक और पौषधविधि सारांश ३. “समग्रगच्छाहत सूक्ष्मार्थसिद्धान्त विचारसार-षडशीति सार्द्ध शतकाख्यकर्म ग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि ८२ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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