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पिण्ड का उपदेश करने वाले जिनवल्लभ की याद करते हैं तो वस्तुतः उनका लक्ष्य पिण्डविशुद्धि ग्रन्थ ही मानना पड़ेगा ) लिखते है:
"धन्नु सु जिणवल्लह वक्खाणि नाणरयण केरी छइ खाणि । Mataria सुद्ध, पिण्डु विहरेइ त्रिविधु मदिरु जग प्रगट करेई ।"
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खरतरगच्छीय युगप्रवरागम श्री जिनपतिसूरि के शिष्य श्री नेमिचन्द्र भंडारी प्रणीत षष्टिशतक प्रकरण के ऊपर तपागच्छीय सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरि ने बालावबोध की सं० १४६६ में रचना की है; उसकी प्रारम्भिक अवतरणिका में वे लिखते हैं :
"नेमिचन्द्र भंडारी पहिलउं तिस्यउ धर्म न जाणतउ । पछइ श्री जिनवल्लभसूरिना गुण सांभलि अन तेहना कीधा पिण्डविशुद्धि प्रमुख ग्रन्थनइ परिचइ साचउ धर्म जाणिउ ।”
इसी प्रकार इसी ग्रन्थ के १२६ वें पद्य का बालावबोध करते हुए आचार्य लिखते हैं
"दिट्ठा० केतलाइ गुरु साक्षात् दीठाइ हुता तत्त्वना जाणनइ मनि रमइ नहीं ही हर्ष न करइ । केवि० अनइ केतलाइ पुण गुरु अणदीठाइ हुंता हीइं रमई वसई तेहना गुण सलिन ही हर्ष उपजइ । जिम श्री जिनवल्लभसूरि । ते जिनवल्लभसूरि नेमिचन्द्र भंडारी पहिला हुआ भी अदृष्टइ हुंता पण नेमिचन्द्र भंडारी नइ मनि तेहना कीधां पिण्डविशुद्धि आदिक प्रकरण देखतां वस्या । इसिउ भाव ।"
आगे चलकर ग्रन्थकार की महत्ता दिखाते हुए पद्य १५३ की व्याख्या में फिर कहा गया है-
संपइ० हिवडां प्रभु श्री जिनवल्लभसूरिनइं वचनिइं जां धर्मनी खरी विधि अनइ साचा विवेकनउं जाणिवउंन उल्लसईन ऊपजइ ता निविड० ते निविडमोह अजाणिवउं अनइ मिथ्यात्वनी ग्रन्थि तेहनजं गाढउ माहात्म्य गाढउ महिमा । ते गाढा अजाण अनइ गाढा मिथ्यात्वी कहीं ।'
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सं० १४६७ में प्रतिष्ठित जैसलमेर सम्भवनाथ जिनालय के प्रशस्ति शिलालेख में तो स्पष्ट ही लिखा है कि नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि-शिष्य जिनवल्लभगणि पिण्डविशुद्धि प्रकरण के कर्ता थे:
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"ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि - नवाङ्गीवृत्तिकार - श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथप्रकटीकार श्री अभयदेवसूरिशिष्य श्री पिण्डविशुद्धयादिप्रकरणकार श्रीजिनवल्लभसूरि
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१. क्ष्माखण्डामृतकुण्ड विष्टपमिते संवत्सरे श्रीतपागच्छेन्द्र गुरुसोमसुन्दरवरैराचार्येधुर्यैरियम् । वार्ताभिर्विहिता हिताय कृतिनां सम्यक्त्ववीजे सुधा-वृष्टिः षष्टिशताह्वय प्रकरणव्याख्या चिरं नन्दतु ॥” २. यह षष्टिशतक प्रकरण श्ररण बालावबोध सहित महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ोदरा तरफ से प्रकाशित हो चुका है ।
वल्लभ-भारती ]
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