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________________ उपजातियों में विभक्त था। लोग इहलौकिक जीवन से सन्तुष्ट थे। अन्धविश्वास बढ़ते जा रहे थे। स्त्रियों का सम्मान था फिर भी उनको स्वातंत्र्य न देने व पुरुषों से हीन समझने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। समाज में अनुदारता, रूढिवादिता, अन्धविश्वास, शिथिलता आदि बढ़ते जा रहे थे। समाज की गतिशीलता नष्ट हो गई थी। मध्य व पश्चिमी भारत में जैन-धर्म का प्रभाव अधिक था। राजपूतों ने धार्मिक स्वतंत्रता की नीति को अपनाया था। उनके संरक्षण में विद्या, साहित्य व कलाओं की उन्नति प्रभूतमात्रा में हुई थी। धार्मिक अवस्था कहा जा चुका है कि ११ वीं शती के समाज की प्रमुख प्रवृत्ति विभिन्नीकरण की थी। जाति-भेद इसी प्रवृत्ति की देन है । धार्मिक क्षेत्र में भी इस प्रवृत्ति का व्यापक प्रभाव पड़ा था। पौराणिक-धर्म के उदय व शंकराचार्य के प्रभाव से बौद्ध-धर्म का भारत से उच्छेद हो गया था। हिन्दू-धर्म ने भगवान् बुद्ध को विष्णु का अवतार मान कर उसका पृथक् अस्तित्व भी समाप्त कर दिया । अनेक सम्प्रदायों की सृष्टि हो रही थी। अधिकांश लोगों द्वारा नवीन सम्प्रदायों में अपना स्थान निश्चित कर लिये जाने पर शेष लोग उपयुक्त मार्गदर्शन के अभाव में अनेक अन्धविश्वासों से ग्रस्त हो गए। इन्हीं लोगों में वज्रयान बौद्ध सम्प्रदाय के तंत्र, मंत्र, पंचमकार सेवन आदि का प्रचार हुआ। इतना अवश्य है कि इस नवीन विचारधारा का सामान्य जीवन से निकट का सम्पर्क रहा, इसलिए आगे चल कर इसी परम्परा में गुरु गोरखनाथ और पीछे से कबीर जसे सुधारक जन्म ले सके। अब तकभिक्षु केवल बौद्ध-सिद्धान्तों के अनुयायी ही हुआ करते थे। अब, भिक्षुकों का अलग वर्ग ही बन गया; जिनका एक भाग किसी भी सिद्धान्त का अनुयायी न होकर केवल समाज का कोढ बन कर पनपने लगा। राजपूतों के उदय से बौद्ध धर्म का रहा सहा रूप भी समाप्त हो गया। केवल पूर्वी बंगाल के पाल शासक अब भी बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान कर रहे थे।' भारत में कुछ समय पहले से पाशुपत सम्प्रदाय अलग रूप से विकसित हो रहा था। तांत्रिकों को इस सम्प्रदाय में अवलम्बन मिला। वे अपवित्र जीवन बिताते. भस्मी रमाते और अद्भुत स्वर का उच्चारण करते थे। इनमें भी कापालिक और कालमुख अधिक उग्र थे। वे कपाल में भोजन करते व मदिरा-मांस का सेवन करते थे। पाशपत सम्प्रदाय का अपेक्षाकृत सौम्यरूप काश्मीर में विकसित हआ था। दक्षिण भारत में वीर शैव या लिंगायत मत का उदय भी इसी समय हुआ था; जिसको चोल तथा पाण्ड्य नरेशों ने आश्रय दिया था। ये लोग वेद को नहीं मानते, जाति-प्रथा का खण्डन करते, विधवा विवाह का समर्थन करते, शिवलिंग का पूजन करते, मृर्दो को गाड़ते, ब्राह्मणों के सर्वोपरि सम्मान, तीर्थ, श्राद्ध आदि का विरोध करते और गुरु की आज्ञा को सर्वोपरि मानते थे। मध्यकाल में सन्तों के सुधार सम्प्रदायों का सही अर्थों में पूर्वज इस मत को माना जा सकता है।' १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया ___ भारत की संस्कृति का इतिहास : डा० मथुरालाल शर्मा १४] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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