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________________ शिव की पत्नी की शक्ति रूप में उपासना करने वाला एक सम्प्रदाय अलग उठ खड़ा हुआ था। ये लोग कालिका, दुर्गा आदि रूपों में शक्ति की उपासना करते थे राजपूतों में इस उपासना का प्रचलन अधिक हुआ। ये लोग पशु व नरबलि भी देते थे। गुजरात के अन्य भागों में पशु-बलि का प्रचलन अधिक हुआ था। कापालिक लोग भी दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मालवा में अधिक थे। साधारण लोग उनसे आंतकित थे और साथ ही उनके चमत्कारों में आस्था भी प्रकट करते थे। चमत्कार दिखाने वालों को सिद्ध पुरुष माना जाता था। ऐसे लोगों की अलग जाति बन गई थी जिन्हें “नाथ" कहा जाता है । ये लोग शिव और शक्ति की मिली-जुली उपासना करते थे और हिं, द्रु, फट आदि शाबर मन्त्रों में विश्वास करते थे। हिन्दू धर्म ही इस समय सार्वभौतिक प्रभुता प्राप्त करता जा रहा था। उक्त मतों के अतिरिक्त सबसे अधिक लोकप्रिय सम्प्रदाय वैष्णवों का था। ये लोग विष्णु के अनेक अवतारों में विश्वास करते थे। उनकी भक्ति पर जोर देते थे। विष्णु की पूजा का प्रचलन बढ़ जाने पर भी अन्य देवताओं की उपासना सर्वसाधारण लोग बराबर करते जा रहे थे। राम, कृष्ण, बुद्ध, ऋषभदेव आदि को विष्णु के अवतारों के रूप में स्वीकार करके बहुत पहले एक सर्वसम्मत समन्वित धर्म को विकसित करने के प्रयत्न किए गए थे। ऐसा ज्ञात होता है कि जैन लोग इसे स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। उनकी सम्मति में यह अर्हत की शिक्षाओं के विपरीत था। आचार-विचार के मामले में वे महावीर के सिद्धान्तों में तनिक भी शिथिलता नहीं आने देना चाहते थे । तत्कालीन जैन-समाज में प्रचलित चैत्यवास प्रथा को निन्दनीय माने जाने का भी यही कारण ज्ञात होता है। - नव वैष्णव-मतवाद के प्रचार में दक्षिण भारत का अधिक योग रहा है । ग्यारहवीं शती के समाप्त होते-होते यमुनाचार्य जी का और श्रीसम्प्रदाय के संस्थापक रामानुज का आविर्भाव दक्षिण में ही हुआ था। कुछ लोग शांकर-मत के अद्वैतवाद से इस्लाम के एकेश्वर. वाद की समता देख कर पीछे से मुसलमान भी होने लगे थे परन्तु ऐसा अधिकतर उत्तर पश्चिम भारत में ही हुआ। मालवा, राजस्थान और गुजरात में जैन मत का प्रचार अधिक हुमा था। जैनमतावलम्बी शासन के उच्च पदों पर काम कर रहे थे। उनके कारण जैनाचार्यों का प्रभाव और भी बढ़ गया था। भोज, विग्रहराज, सिद्धराज आदि उदार शासकों ने जैन धर्म को प्रश्रय देने के साथ ही उन सिद्धांतों में विशेष रुचि दिखाई थी। गुजरात के सोलंकियों का समय जैन-साहित्य का स्वर्णकाल उचित ही माना गया है। स्वयं जिनवल्लभसूरि ने अनेक स्थानों पर जाकर लोगों को प्रबुद्ध किया था। चैत्यवास प्रथा तत्कालीन जैन-समाज की प्रमुख विशेषता है जिसके विषय में विस्तार से प्रकाश डालना युक्तिसंगत होगा। १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया भारत की संस्कृति का इतिहास : डा० मथुरालाल शर्मा २.. वही । बल्लभ-भारती]
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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