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चैत्यवास तत्कालीन जैन समाज की सबसे बड़ी बात जिसने आचार्य जिनवल्लभ के जीवन की गतिविधि को सबसे अधिक प्रभावित किया,वह थी जैन यतियों की चैत्यवास प्रथा। उस मसय श्वेताम्बर समुदाय के यति लोग जिन-मन्दिरों में रहा करते थे जिनको प्रायः चैत्यगृह कहते थे। साधारणतया जो लोग जैन-धर्म के इतिहास से परिचित नहीं हैं उनकी समझ में यह नही आ सकता कि जिन-मन्दिर में वास करने वाले यतियों को किसी समय भी घृणा की दृष्टि से क्यों देखा गया ? परन्तु यदि वे लोग यतियों के शास्त्र-सम्मत व्रत और आचार को अच्छी प्रकार से समझ लें तो उनका भ्रम दूर हो जाएगा। "जैन-शास्त्रों के विधान के अनुसार जैन यतियों का मुख्य कर्तव्य केवल आत्म-कल्याण करना है और उसके आराधन निमित्त शम, दम, तप आदि दशविध यतिधर्म का सतत पालन करना है । जीवन-यापन के निमित्त जहां कहीं मिल गया वैसा लूखा-सूखा और सो भी शास्त्रोक्त विधि के अनुकूल भिक्षान्न का उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्षुजन अपने पास चला आवे उसे एक मात्र मोक्षमार्ग का उपदेश करना है। इसके सिवा यति को न गृहस्थजनों का किसी प्रकार का संसर्ग ही कर्तव्य है और न किसी प्रकार का किसी को उपदेश ही वक्तव्य है। किसी स्थान में बहुत समय तक नियतवासी न बनकर सदैव परिभ्रमण करते रहना और वसति में न रहकर गांव के बाहर जीर्ण-शीर्ण देवकुलों के प्रांगणों में एकान्त निवासी होकर किसी न किसी तरह का सदैव तप करते रहना ही जैन यति का शास्त्र विहित एक मात्र जीवन-क्रम है"। जैन-सूत्रों के अनुसार साधुओं के लिये जिस आचार का विधान है उसके अनुसार जैन साधु को संक्षेप में निम्नलिखित बातों का पालन करना आवश्यक था:
१. परिग्रह का अभाव अर्थात् धन, द्रव्य, दास, दासी, चतुष्भद आदि किसी भी _वस्तु का संग्रह न करना। २. एक स्थान पर स्थायी रूप से न रहना । ३. मधुकरी वृत्ति से ४२ दोष रहित भोजन ग्रहण करना। ४. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना। ५. स्त्री, पशु रहित स्थान में ठहरना। ६. अंगराज, ताम्बूल, तेल, इत्र आदि का प्रयोग न करना। ७. क्रय, विक्रय आदि किसी भी किस्म का व्यापार न करना और न उससे प्राप्त - धन को ही स्वीकार करना। ८. परिमित आहार। ६. क्षमा, लघुता आदि दशविध यति-धर्म का पालन करना। ..
१. कथाकोष प्रस्तावना पृ० ३-४.
[ वल्लभ-भारती