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________________ १४ को पालनपुर में श्री जिनेश्वरसूरि ने आपको दीक्षा प्रदान की थी। सं० १३२५ ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थी को सुवर्णगिरि (जालोर) में आचार्य जिनेश्वर ने ही आपको वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया था। सम्भव है विद्याध्ययन आपने श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय आदि के पास में किया हो। एतदरिक्त अन्य कोई ऐतिह्य उल्लेख आपके सम्बन्ध में प्राप्त नहीं है। आपकी रचनाओं में भी केवल यही एक टीका प्राप्त है। इसकी रचना सं० १३२२ फाल्गुन कृष्णा ६ को हुई है। यह रचना आपने मुनि अवस्था में की है और वाचनाचार्य पद आपको १३२५ में मिला है। इसका संशोधन श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्याय ने किया है तेषां युगप्रवरसूरिजिनेश्वराणां, शिष्यः स धर्मतिलको मुनिरादधाति । व्याख्यामिमामजितशान्तिजिनस्तवस्य, स्वार्थ-परोपकृतये च कृताभिसन्धिः ॥२॥ विचक्षणग्रन्थसुवर्णमुद्रिका, विचित्रविच्छित्तिमि (व)ता विनिर्मिता। यदीयनेत्रोत्तमरत्नयोगतः, श्रियं लभन्ते मितिमण्डले पराम् ॥३॥ तैः श्री लक्ष्मीतिलकोपाध्यायः परोपकृतिदक्षः । विद्वद्भिवत्तिरियं समशोधिततरां प्रयत्नेन ॥४॥ युग्मम् नयनकरशिखीन्दु १३२२ विक्रमवर्षे तपस्यसितषष्ठ्याम् । वृत्तिः सथिताऽस्या मानं च सविंशति स्त्रिशती ॥५॥ यह टीका प्रौढ एवं विद्वद्भोग्या है। इसमें विशेषावश्यक भाष्य जैसे ग्रन्थों के भी उद्धरण हमें प्राप्त होते हैं। इसमें वस्तु का विवेचन प्राञ्जल और प्रौढ भाषा में होते हुए भी सरलता को लिये हुए है जिससे उनका इस भाषा पर आधिपत्य प्रकट होता है। यह टीका वैराग्यशतकादि पञ्चग्रन्थों में प्रकाशित हो चुकी है। उपाध्याय गुणविनय लघुअजितशान्तिस्तव के टीकाकार गुणविनय के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में ऐतिह्य प्रमाणों का अभाव है। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि द्वारा स्थापित ८ वी नन्दि 'विनय' होने से आपका दीक्षा काल संभवतः १६२१ या २२ का होगा । आप जिनकुशलसूरि सन्तानीय क्षेमकीति शाखा के प्रौढ विद्वान् उपाध्याय जयसोम गणि के शिष्य थे। जिस समय सं० १६४८ में युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि सम्राट अकबर के आग्रह से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी उनके साथ में थे। यु० जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६४६ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को आपको वाचनाचार्य पद से सुशोभित किया था। सम्राट् जहांगीर ने आपकी असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको 'कविराज पद प्रदान किया था। . १. कर्मचन्द्रवंशप्रबन्धवृत्ति । २. प्रापके शिष्य मतिकीति निर्मित नियुक्तिस्थापन प्रश्नोत्तर ग्रन्थ की प्रशस्तिः "चम्पू-रघु-मुख्यानां ग्रन्थानां विवरणात्तथा जहांगीरात् । नवनवकवित्वकथने स्यादाप्राप्त कविराजपदम् ॥५॥ १७.1 [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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