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प्रसन्न कर मयणों (मीणों) द्वारा मारे जाने वाले 'सांडा' जीवों को बचाया था । सिन्धु देश में विहार करते हुए सिद्धपुर के मखनूम महमद शेख को प्रतिबोध देकर पञ्चनदीय जलचर जीवों तथा गौ की रक्षा का अमारी पटह बजवा कर अहिंसा धर्म का सुन्दर प्रचार किया था । मंडोवर ( मंडोर ) और मेड़ता के नृपति आपके भक्त थे । सं० १७०२ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को अहमदाबाद में आपका स्वर्गवास हुआ था ।
आपके द्वारा सर्जित साहित्य-निधि आज भी अपार संख्या में उपलब्ध है । आपने अनेकों मौलिक ग्रन्थ, टीका ग्रन्थ, विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थ, संग्रहात्मक ग्रन्थ, रासचतुष्पदी आदि भाषा-साहित्य के अनेकों ग्रन्थ निर्माण किये । आपके स्तोत्र, स्तवन, स्वाध्याय, (सज्झाय) पद आदि की तो गिनती भी नहीं है, जिसमें बहुलता से अनेकों नष्ट हो गये हैं । फिर भी प्रचुर परिमाण में आपका साहित्य उपलब्ध है । आपके प्रणीत साहित्य की तालिका और आपके जीवन का कला-कलाप विस्तार भय से यहां नहीं दिया जा रहा है । आपके सम्बन्ध में विशेष प्ररिचय 'समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि' की भूमिका में और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पुस्तक में प्राप्त होगा ।
आपने वीर चरित्र पर एक टीका लिखी। दुर्भाग्यवश अब तक की प्राप्त प्रतियों में इसकी प्रशस्ति नहीं है । अतः इसका रचनाकाल नहीं बताया जा सकता। आपके लघु अजित शान्तिस्तव वृत्ति की रचना सं० १६६५ में हुई है। टीकाकार के रूप में आपकी शैली सर्वदा शिष्य - हितैषिणी रही है । इसी कारण यह भी प्रारम्भिक जिज्ञासुओं के लिये उपादेय वस्तु बन गई है । भाषा सरल और वाक्याडम्बर रहित तथा परिमार्जित है ।
श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत की तरफ से ये प्रकाशित हो चुकी हैं ।
विमलरत्न
वीरचरित बालावबोधकार त्रिमलरत्न पाठक विमलकीर्ति के शिष्य थे । आपके सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । आपके नाम को सुरक्षित रखने वाला केवल यही एक बालावबोध उपलब्ध है। इसकी रचना आपने सं० १८०२ पौष शुक्ला दसमी को साचोर (मारवाड़) में की थी । इसकी एक मात्र ११ पत्र की प्रति श्री मोतीचन्दजी खजांची संग्रह बीकानेर में सुरक्षित है ।
यह बालावबोध विवेचन पूर्ण है । इसमें श्रमण महावीर के पूर्व-भवों और तपस्या . के सम्बन्ध में लेखक ने अच्छा विवेचन किया है। इसे पढकर जरा साहित्यिक आनन्द अवश्य प्राप्त होता है । इसकी भाषा भी अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा परिमार्जित है ।
वाचनाचार्य धर्मतिलक
लघु अजित - शान्ति - स्तव के टीकाकार वाचनाचार्य धर्मतिलक गणि आचार्य जिनपतिसूरि के पट्टधर आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वितीय के शिष्य थे। सं० १२६७ चैत्र शुक्ला
१. देखें मेरी लिखित 'महोपाध्याय समयसुन्दर'
वल्लभ-भारती ]
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