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अवचूरि की रचना सं० १६१५ में की है । यह अवचूरि सुगम, सुबोध तथा पठनीय है। इसमें वाक्याडम्बर रहित किन्तु परिमार्जित शैली का अनुसरण किया गया है ।
कमलकीर्त्ति
चरित्र - पञ्चक बालावबोध और लघु अजितशान्ति स्तव के बालावबोधकार श्रीकमलकीत आचार्य श्रीजिनमाणिक्यसूरि के प्रशिष्य, वाचनाचार्य श्रीकल्याणधीर गणि के शिष्य थे| युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि स्थापित ४४ नन्दियों में ४० वीं नन्दी 'कीर्ति' होने से अनुमानतः सं० १६५० और १६६० के मध्य में आपकी दीक्षा हुई होगी। सं० १६७६ में आपने महीपाल चरित्र चतुष्पदी की रचना की है। इससे भी यह अनुमान स्वाभाविक साही प्रतीत होता है ।
सं० १६८७ चैत्र शुक्ला ह सोमवार को आपने बाल ब्रह्मचारिणी सूजी नामकी श्राविका के लिये सप्तस्मरण बालाववोध की २५०० श्लोक परिमाण में रचना की है; जो सखवाल गोत्रीय श्रष्ठि सांगण के पुत्र श्री सहस्रकरण की पुत्री थी और आपकी चाची लगती थी तथा जिनको आप माता के रूप में ही मानते थे; उसी के लिये आपने स्वयं सं० १६८८ में यह प्रति भी लिखी है ।
लघु अजित - शान्तिस्तव बालावबोध ( २० सं० १६८९ ) और चरित्र पञ्चक बालावबोध (२० सं० १६६८ श्रा० ० ६ ) पर आपने बहुत ही विस्तृत विवेचन लिखे हैं । इसमें उन्होंने न केवल कवि की प्रतिभा को सम्यकरूप से प्रकट करने का सफल प्रयत्न किया है अपितु स्तोत्र में वर्णित भगवान् के स्वरूप की दार्शनिक मीमांसा भी अच्छी की है । आपकी ये दोनों कृतियें पठन योग्य हैं ।
उपाध्याय समयसुन्दर
जैन जगत् के प्रसिद्ध कवि समयसुन्दर का नाम किसने न सुना होगा ? आफ मूलतः राजस्थान में साचौर के निवासी थे और आपके पिता का नाम था रूपसी तथा माता का नाम लीलादेवी था । १७वीं शती के प्रसिद्ध जैनाचार्य सम्राट् अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि के आप प्रशिष्य तथा सकलचन्द्र गणि के शिष्यरत्न थे । आपके विद्यागुरु थे वाचक महिमराज और वाचक समयराज । आपके पाण्डित्य, चारित्र्य और सिद्धान्तज्ञान का समुचित मूल्यांकन करना यहां संभव नहीं । अकबर की सभा में आपने "राजानो ददते सौख्यम्" की व्याख्या में ८ आठ लाख अर्थ कर 'भारती पुत्र' कलिकाल कालिदास-ता सिद्ध की थी। आप व्याकरण, न्याय, दर्शन, लक्षण, साहित्य, आगम आदि के प्रकाण्डपण्डित थे और इनकी वाग्मिता तथा प्रगल्भता का लोहा उस समय सब मानते थे ।
जब ० जिनचन्द्रसूरि सम्राट् अकबर के आग्रह से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी साथ में थे। सं० १६४६ में फाल्गुन शुक्ला २ को आचार्यश्री ने आपको वाचक पद प्रदान किया था । सं० १६७१ लवेरा में जिनसिंहसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद दिया था । सं० १६८७-१६८८ के दुष्काल के कारण जो साधु-समाज में शिथिलता आगई थी उसका परिहार कर १६६१ में आपने क्रियोद्धार किया था। जैसलमेर के राउल श्री भीमसिंहजी को
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[ वल्लभ-भारती