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श्रोग्यासदीनसाहेमहासभालब्धवादिविजयानाम् । श्रीसिद्धान्तरुचिमहोपाध्यायानां विनेयेन ॥२॥ साधुसोमगणोशेनाक्लेशेनार्थप्रबोधिनी । श्रोवीरचरिते चक्रे वृत्तिश्चित्तप्रमोदिनीम् ॥३॥ जिनवल्लभसूरीन्द्रसूक्तिमौक्तिकपंक्तयः । दर्शितार्था सुदृष्टीनां सुखग्राह्या भवन्विति ॥६॥ चार्वरित्रपञ्चककृतिविहिता नवैकतिथिवर्षे ।
हर्षेण महर्षिगरमैः प्रवाच्यमाना चिरं जयतु ॥७॥
इस टीका में आपने चरित्र संबंधी अनेक रहस्यों का समाधान आगमिक ग्रन्थों द्वारा करके जीवन-चरित्र का क्या महत्व है ? इत्यादि बातों का विशिष्ट प्रतिपादन किया है । टीका सुस्पष्ट और शिष्यहितैषिणी प्रतीत होती है ।
नन्दीश्वर स्तोत्र की टीका तो केवल पर्यायबोधिनी मात्र है, विशिष्ट टीकागुणों से युक्त नहीं । इनके अतिरिक्त संसारदावावृत्ति और कई स्तोत्रादि भी आपके प्राप्त होते हैं।
चरित्र पंचक की प्रतियां पूना, यशसूरि भंडार जोधपुर आदि में प्राप्त हैं। और नंदीश्वरस्तोत्र-टीका की प्रतियां बीकानेर बड़ा भंडार आदि तथा मेरे संग्रह में है।
वाचक कनकसोम __ चरित्र-पञ्चक अवचूरिकार वाचक कनकसोम आचार्य जिनभद्रसूरि सन्तानीय वाचनाचार्य श्रीअमरमाणिक्य गणि के शिष्य थे और महोपाध्याय श्री साधुकोत्ति आपके बृहद् गुरुभ्राता थे। वैसे आप ओसवंशीय नाहटा गोत्र के थे। आपके माता-पिता का नामोल्लेख हमें प्राप्त नहीं है । वृत्तरत्नाकर की सं० १६१३ चैत्र कृष्णा ११ को लिखित, आपकी करकमलाङ्कित प्रति प्राप्त होने से यह निश्चित है कि आपको दीक्षा श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी ने प्रदान की होगी। जिनवल्लभीय चरित्र पञ्चक पर अवचूरि की सं० १६१५ की स्वयं लिखित प्रति होने से यह अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि आपकी दीक्षा सं० १६००-१६०५ के मध्य में हुई होगी। चरित्र पञ्चक पर अवचूरि लिखने के लिये १० वर्ष की दीक्षा-पर्याय तो अवश्य होना ही चाहिये। सं० १६४८ में यु० श्रीजिनचन्द्रसूरि अकबर के आमन्त्रण से लाहोर पधारे थे उस समय आप भी साथ थे। संभवतः आपको वाचक पद यु. जिनचन्द्रसूरि ने ही दिया होगा। थावच्चा सुकोमल चरित्र की अन्तिम रचना सं० १६५५ में होने से इसके पश्चात् ही आपका स्वर्गवास हुआ है।
___ आपकी रचित जइतपदवेली, हरिकेशी संधि आदि भाषात्मक १० रचनायें और नववाडी गीत, जिनचन्द्रसूरि गीत आदि अनेक गीत भी प्राप्त हैं।
संस्कृत रचनाओं में आपकी यह एक ही कृति उपलब्ध है। इसमें आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांचों तीर्थकरों के चरित्र पर आपने
वल्लभ-भारती]