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________________ | पद्य में ग्रन्थकार का नामोल्लेख है। इस प्रकार भोजन-शुद्धि के ४७ दोषों का अनेकों भांगों सहित विवेचन १०३ श्लोक के छोटे से प्रकरण में; वह भी आर्या जैसे लघु मात्रिक छन्द में ग्रथित करना गणिजी का उक्तिलाघव और छन्दयोजना का चातुर्य प्रकट करता है । उक्त प्रकरण में प्ररूपित ४७ दोष निम्नलिखित हैं; जिनमें गवेषणा के १६, एषणा १६, ग्रहणैषणा के १० और ग्रासैषणा के पांच, इस प्रकार कुल ४७ होते हैं । जिनमें गृहस्थाश्रित १६ गवेषणा के दोष इस प्रकार हैं : १. आधाकर्म - साधु के निमित्त निष्पादित आहार आधा कर्म कहलाता है । २. औद्दशिक - जिसका उद्देश करके बनाया गया हो वह औद्दे शिक कहलाता है । ३. पूतिकर्म - पवित्र आहार में आधा कर्म आहार का एक भी कण मिल जाय तो वह कर्म कहलाता है । ४. मिश्रजात - जो आहार साधु तथा अपने लिये सामिल बनाया गया हो । ५. स्थापना - साधु के निमित्त रक्षित आहार जो दूसरों को नहीं दिया जाता । ६. प्राभृतिका - साधु के लिये अतिथि को आगे पीछे करना । ७. प्रादुष्करण - अन्धकारमय स्थान में प्रकाश करके साधु को देना । ८. क्रीत - साधु के लिये वस्त्र, पात्र आदि वस्तुओं को खरीदना । ६. अपमित्थ-साधु के लिये भोजन आदि उधार लाकर देना । १०. परिवर्तित - साधु को देने के लिये अपनी वस्तु का दूसरों से परिवर्तन कर, लाकर देना । ११. अभिहृत - साधु के सामने जाकर आहारादि दान देना । १२. उद्भिन्न- बर्तन के मुख पर लगे हुए लेप को छुड़ाकर, उसमें से भोजनादि निकाल कर साधु को देना । १३. मालापहृत - पीढा या सीढी लगाकर ऊपर नीचे अथवा तिरछी रखी हुई वस्तु को निकाल कर साधु को देना । १४. आच्छेद्य - किसी दुर्बल से छीनकर साधु को आहार देना अथवा बलात्कार से दिलाना । १५. अनि सृष्टि - दो या अनेक मनुष्यों के भागीदारी की वस्तु किसी भागीदार की आज्ञा बिना देना । ६. अध्यवपूरक - साधुओं को नगर में आये हुए जानकर बनाने में अधिक वस्तु डालना । साध्वाश्रित एषणा के १६ दोष निम्न हैं : धात्री कर्म - धाय माता का कार्य करके आहार लेना । . २. दूती कर्म - गृहस्थों के संदेशादि पहुँचाकर दौत्यकर्म द्वारा आहार ग्रहण करना । ३. निमित्त - त्रिकाल का लाभालाभ एवं जीवन - मृत्यु आदि निमित्तशास्त्र बतलाकर आहार लेना । ४. आजीव - अपनी जाति कुल गोत्र आदि की प्रशंसा कर आहार लेना । वनीपक- दीनतापूर्वक याचना कर आहार लेना । ६. विचिकित्सा - औषधोपचार कर आहार लेना । ७. क्रोध — क्रोधपूर्वक आहार लेना । ६० ] . [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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