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८. मान - गर्व पूर्वक आहार लेना ।
६ माया - प्रपंच पूर्वक आहार लेना ।
१०. लोभ -- लोभपूर्वक अथवा लोभ दिखाकर आहार लेना ।
११. पूर्वपश्चात् संस्तव - प्रारंभ में या अन्त में दाता की प्रशंसा करना ।
१२. विद्या - विद्या सिद्धि के बल से आहार लेना ।
१३. मन्त्र - मन्त्र प्रयोग पूर्वक आहार लेना ।
१४. चूर्ण - चूर्णों का प्रयोग करना ।
१५. योग - लेपादि योग बतलाना ।
१६, मूलकर्म - गर्भपातादि के लिए औषध बतलाकर आहार लेना ।
साधु एवं भक्ताश्रित ग्रहणैषणा के १० दोष निम्न हैं:
१. शङ्कित - साधु और गृहस्थ दोनों को ही आहार के विषय में शंका होने पर भी उस आहार को ग्रहण करना ।
२. म्रक्षित - सचित्त जल से हाथ अथवा केश जिसके भीगे हैं उस गृहस्थ के हाथ से आहार ग्रहण करना ।
३. निक्षिप्त- अकल्प्य वस्तु पर रखी हुई कल्प्य वस्तु को ग्रहण करना ।
४. पिहित - सचित्त वस्तु से आच्छादित अचित वस्तु को ग्रहण करना ।
५. संहृत - अकल्प्य वस्तु वाले पात्र को खालीकर उस पात्र से लेगा, अथवा जिस पात्र से लेने में पश्चात् कर्म की ( कच्चे पानी से धोना आदि) संभावना हो उस से ग्रहण करना ।
६. दायक - अयत्ना - अनुपयोग पूर्णक दिया हुआ आहार ग्रहण करना ।
७. उन्मित्र - अकल्प्य वस्तु से मिली हुई कल्प्य वस्तु को ग्रहण करना ।
८. अपरिणत - अपरिपक्व वस्तु को ग्रहण करना ।
६. लिप्त - तत्काल की लींपी हुई जमीन को लांघकर आहार ग्रहण करना । १०. छर्दित - दान देते हुए आहारादि के छींटे नीचे पड़े हों उस आहार को ग्रहण करना । साधु को भक्षण करते समय लगने वाले ग्रासैषणा के ५ दोष निम्न हैं
१. संयोजना - स्वाद के लिये अनेक वस्तुओं का संमिश्रण करना ।
२. प्रमाण - मर्यादा से अधिक भोजन करना ।
३. इंगाल - स्वादिष्ट भोजन की प्रशंसा करना ।
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४. घूम – अरुचिकर आहार की निन्दा करना ।
५. कारण - क्षुधा, वेदना, वैयावृत्य, संयम, सद्ध्यान और प्राणरक्षार्थ आदि कारणों के बिना भोजन करना ।
४. सर्वजीतशरीरावगाहना स्तव
भगवती ( विवाह प्रज्ञप्ति) सूत्र के २५०वें शतक के तृतीय उद्दे शक का आधार लेकर प्राकृत भाषा में आर्याओं में इसकी रचना की गई है। इसका वर्ण्य विषय है- सूक्ष्म,
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वल्लभ-भारत ]
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