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वर्ण्य जीवस्थान की १४ संख्याओं का निदश करता हुआ पद्य ४ से ११ तक जीवस्थानों में गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का स्वरूप विस्तार से प्रगट करता है । पद्य १२ में मार्गणा के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञि और आहार इन १४ स्थानों-संख्याओं का निर्देश करता हुआ (१३-१७) तक अवान्तर भेदों का दिग्दर्शन कराता है और (१८ से ६४ तक) उपर्युक्त मार्गणा के १४ स्थानों में प्रत्येक का जीवस्थानक, गुणस्थानक, योग, उपयोग, लेश्या और अल्पबहुत्व का विवेचनीय स्वरूप दिखाता है। पद्य ६५ में १४ गुणस्थानों का नाम निर्देश किया गया है । तदनन्तर (पद्य ६६ से ८५ तक) गुणस्थानक - मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमतसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवलि और अयोगि केवलि के प्रत्येक का जीवस्थानक, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्पबहुत्व इस प्रकार १० वस्तुओं के साथ सम्बन्ध दिखाता हुआ प्रशस्य स्वरूप प्रकट करता है और अन्तिम पद्य ८६ में उपसंहार करता हुआ अपना नाम प्रकट करता है।
इस लघु-कायिक ग्रन्थ की उपयोगिता इतनी अधिक सिद्ध हुई कि समग्र गच्छवालों ने इसे आहत किया। केवल आदृत ही नहीं किन्तु पठन-पाठन कर महत्ता सिद्ध की । यही कारण है कि आज भी इसकी सैकड़ों की संख्या में लिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं जो इसके प्रचार को प्रकट करती हैं। इसी षडशीति के अनुकरण पर तपागच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि ने षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की रचना की है।
३. पिण्डविशुद्धि प्रकरण आत्म साधना की दृष्टि से पिण्ड-भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा जैसा 'खावे अन्न वैसा होवे मन्न' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये श्रमण-संस्कृति एवं श्रमण परम्परा में संयमी मुनियों के लिये शुद्ध अन्न का ग्रहण परमावश्यक समझा गया है। पूर्व में श्रुतधर श्रीशयम्भवसूरि ने दसर्वकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने पिण्डनियुक्ति में इस विषय का बहुत ही विस्तृत और सुन्दर प्रतिपादन किया है । परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कंठस्थ करने में अल्पबुद्धिवालों की असमर्थता देखकर आचार्य जिनवल्लभ ने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की रचना की।।
____ इस प्रकरण में कुल १०३ पद्य हैं। १-१०२ तक आर्याछन्द में हैं और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडित वृत्त में । इसमें ग्रन्थकार ने प्रथम और द्वितीय पद्य में नमस्कार और प्रयोजन कथन कर, ३, ४.पद्य में गृहस्थाश्रित उत्पादन के १६ दोषों का नालोल्लेख मात्र किया है और गाथा ५ से ५७ तक में इनका विस्तृत विवेचन किया है। गाथा ५८-५६ में साधु आश्रित उद्गम के १६ दोषों का नामोल्लेख है और ६०-७६ तक इनका विस्तृत विवेचन है। इस प्रकार कुल गवेषणा और ऐषणा के मिलाकर ३२ दोषों का वणन यहाँ पूरा होता है । तदनन्तर ग्रहणषणा के १० दोषों का ७७वें पद्य में उल्लेखकर, ७८-६३ तक उनका विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् ६३वें पद्य में भक्षण-ग्रासैषणा के पांच दोषों का उल्लेख और गाथा १०१ तक उनका विवेचन है। १०२वें पद्य में शुद्धि का निर्जरा फल और अन्तिम
वल्लभ-भारती ]
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