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________________ में कुछ प्रकृतियें पुद्गल-विपाकी, जीवविपाकी भावविपाकी और क्षेत्रविपाकी हैं, उसका कारण सहित इसमें उल्लेख है। पद्य ६४ से ७७ में मूल कर्मप्रकृतियें और उत्तर कर्म-प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा बतलाई गई है। पद्य ७८ से ८४ में कर्मबन्ध होकर जब तक फलादेश शरु नहीं होतातब तक के समय को अबाधाकाल कहते हैं, इसका वर्णन ग्रन्थकार ने अच्छी तरह किया है । पंचेन्द्रिय जीवों में कर्म-स्थिति का अल्प-बहुत्व और जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के स्वामी, स्थिति का शुभाशुभत्व और उसके कारण का संक्षिप्त वणन है। पद्य ८५ से ८६ में योग का स्थितिस्थान, योगवृद्धि, योगोदाहरण का स्वरूप-वर्णन है । पद्य १० से १०१ में शुभाशुभ रस बंध में क्या कारण है इसका और प्रकृतियों का स्वरूप, प्रदेश-बंध का स्वरूप तथा वर्गणा स्वरूप का वर्णन है । कर्मों और सर्वंघाती प्रकृतियों का आश्रय कर प्रदेश विभाग का वर्णन किया गया है । पद्य १११ से ११३ में योग, प्रकृति प्रदेश स्थितिबन्धाध्यवसाय, स्थितिस्थान, अनुभागबंधाध्यवसाय अनुभाग और अनुभागस्थान तथा इनके अल्प-बहुत्व का वर्णन है । गोत्र और काल की सूक्ष्मता तथा स्थूलता भी बतलाई गई है। पद्य ११४ में श्रेणीप्रतर, घन और लोक का प्रतिपादन किया गया है। ११५ से ११७ में प्रकृति और स्थिति तथा इनके अध्यवसाय और अनुभागबन्धाध्यवसायों के असंख्यपन का वर्णन किया गया है। ११८ से १२२ में कषायों के उदय में अशुभ और शुभ, शुभ और अशुभतेस्याओं से अनुभागस्थानों के अल्पबहुत्व का वर्णन है। १२३ से १५१ में संख्यात, असंख्यात और अनंतभेदों का स्वरूप कथन है तथा संख्यात, परितासंख्यात, युक्तसंख्यात. असंख्यात, परितानंत, युक्तानंत और अनंतानंत के जघन्य, मध्यम एवं उत्कृट के भेदों का कथन है। पद्य १५२ में कवि ने स्वनाम सहित उपसंहार किया है। १५२ आर्याओं में विवेचनीय अत्यधिक वस्तुओं का अति संक्षेप होने के कारण इसका प्रचार बहुत ही हुआ प्रतीत होता है। यही कारण है कि आज भी भंडारों में इसकी सैकड़ों की संख्या में प्रतियें प्राप्त हैं - और इस पर विवेचन ग्रन्थों का तो कहना ही क्या ?' आगमिकवस्तुविचारसार-प्रकरणा इस ग्रन्थ में कवि ने पूर्वर्षि प्रणीत आगमिक जीव, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग और लेश्या आदि विषों का विवेचन होने से इसका यथानुरूप आगमिकवस्तुविचारसार नामकरण किया है। इसका एक अपरनाम भी है, वह है 'षडशीति' । इस नामकरण का रहस्य यह है कि उपर्युक्त समग्र वस्तुओं का विवेचन केवल ८६ आर्याओं में ही हुआ है । इसीलिये इस वृहन्नाम का लघु संस्करण हुआ है; जो विशेष प्रसिद्ध है। कवि की उक्तिलाघवता और छन्दयोजना के सम्बन्ध में तो यहाँ लिखना व्यर्थ हो है, क्योंकि इस विषय पर अन्यत्र हमने प्रकाश डाल दिया है । इसमें आदि से अन्त तक आर्यानामक वृत्त का ही अनुकरण हुआ है। इसमें कवि प्रथम पद्य में भगवान पार्श्वनाथ को नमस्कार कर, द्वितीय पद्य में अपनी लघूता प्रदर्शित करता हुआ वक्ष्यमाण वस्तुओं का उल्लेख करता है । तृतीय पद्य में १. देखिये-टीकाग्रन्थ और टीकाकार ८८ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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