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नाम हेमराज था। 'वल्लभ' नंदी को देखने से ऐसा अनुमान किया जा सकता है सं० १७१० के लगभग आपकी दीक्षा जिन राजसूरि अथवा जिनरत्नसूरि के करकमलों से हुई होगी। प्राप्त पत्रों के अनुसार आपको उपाध्याय पद सं० १७३३ के पूर्व ही प्राप्त हो चुका था।
१८वीं शती के आप एक प्रसिद्ध टीकाकार और भाषा-साहित्य के सर्जक थे । आपकी प्रणीत उत्तराध्ययन तथा कल्पसूत्र को वृत्तियें जितना आदर प्राप्त कर सकी हैं उतनो अन्य इन ग्रन्थों के टीकाकारों की कृतियें भी नहीं कर पाई। इनके ग्रन्थों के अध्ययन से यह तो निष्कर्ष अवश्य निकाला जा सकता है कि आप अनेक विषयों के ज्ञाता थे । साथ ही यह भी कह सकते हैं कि इनकी कृतियों में 'पण्डितमन्य' की भावना का प्रदर्शन हमें कहीं भी नहीं मिलता; अपितु सामान्य तज्ज्ञों को आकषित करने का प्रयत्न अवश्य दिखाई पड़ता है। इनकी धर्मोपदेश स्वोपज्ञवृत्ति और कुमारसम्भव काव्य पर वृत्ति भी प्राप्त है । कुमारसम्भव की वृत्ति कवि की प्रारम्भिक रचना होने के कारण प्रौढ व परिमाजित नहीं बन सकी है। इसमें केवल खण्डान्वय पद्धति से पर्यायों पर ही अधिक बल दिया गया है। आपकी रचनाए सं० १७२१ से ४७ तक की प्राप्त हैं। अतः सं० १७५० के लगभग आपका स्वर्गवास हो गया हो ऐसा सम्भव है।
___आपकी भाषा में तो एक नहीं सैकड़ों कृतियें प्राप्त हैं। वे केवल राजस्थानी भाषा में ही नहीं; अपितु हिन्दी और सिन्धी भाषा में भी । भाषा-काव्य-साहित्य में आपने अपना उपनाम 'राजकवि' भी दिया है। राजस्थानी हिन्दी गद्य-साहित्य में आपकी तीन रचनाए प्राप्त हैं, वे हैं-संघपट्टक का बालावबोध, कृष्ण रुक्मिणो वेली और भर्तृहरि शतकत्रय स्तबक ।
इस बालावबोध की रचना आपने कब की? प्रशस्ति के अभाव में कह नहीं सकते। किन्तु भाषा और शैली को देखते हुए कह सकते हैं कि आपकी यह प्रौढकालीन रचना है। यही कारण है, इस ग्रन्थ का विवेचन व्याख्याकार अच्छी तरह से कर सका है। व्याख्याकार ने आ० जिनपति की बृहट्टीका को ही आदर्श मान कर तदनुरूप बालावबोध की रचना की है।
इसकी प्रतियें अबीरजी भंडार व म० रामलाल जी संग्रह बीकानेर में हैं । आपके रचित पंचदंड चौ०, अमरकुमर रास, रात्रिभोजन चौ०, रत्नहास चौ० आदि रास, पंचकुमार कथा. भावनाविलास, कालज्ञान (वैद्यक) आदि प्राप्त कृतियों का परिचय राजस्थानी भा. २ में 'राजस्थानी भाषा के दो महाकवि' निबन्ध देखें।
महोपाध्याय पुण्यसागर प्रश्नोत्तरेकषष्टिशतं काव्य के टीकाकार महो. पुण्यसागर: बादशाह सिकन्दर लोदी को प्रसन्न कर ५०० बन्दियों को कारागार से मुक्त कराने वाले तथा आचारांग सूत्र की दीपिका नाम से व्याख्या बनाने वाले आ० जिनहंससूरि के स्वहस्त-दीक्षित शिष्य थे। गीतों में आपके मातुश्री का नाम उत्तमदेवी और पिताश्री का नाम उदयसिंहजी प्राप्त होता है।
१. सं० १७३३ का प्रा० जिनचन्द्रसूरि का प्रादेश पत्र, नाहा संग्रह ।
[ वल्लभ-भारती