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________________ प्रभावक चरित और सुमतिगणि तथा जिनापालोपाध्याय के प्रबन्धों के अनुसार शासनदेव की प्रेरणा और समय-समय पर सहायता देने के वचन से प्रभावित होकर आचार्य ने टीका रचना का कार्य हाथ में लिया और विवादास्पद तथा शंकापूर्ण स्थलों पर शासन देवता जया, विजया, जयन्ति, अपराजिता, पद्मावती आदि देवीवर्ग महाविदेह स्थित सीमन्धर तीर्थंकर से उत्तर प्राप्त कर आचार्य को देती थी। इससे टीका सर्वाङ्ग सुन्दर बन सकी है। इस प्रकार का मन्तव्य युक्त नहीं कहा जा सकता । यदि हम मान भी लें कि देवियों ने तीर्थंकर से उत्तर प्राप्त करके दिया हो तो, आचार्य अभयदेव को स्थान-स्थान पर "प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि" "इह च बड़वो वाचनाभेदा:” “कस्यांश्चिद् वाचनायामपरमपि सम्बधसत्रमपलभ्यते" "सत्सम्प्रदायहीनत्वात" "तत्त्वं त केवलीगम्यम्" इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रहती तथा अन्य किसी भी स्थल पर इस बात का उल्लेख आचार्य अवश्य करते । जब आचार्य द्रोण के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन आचार्य न भूल सके तो भला ऐसी महत्त्वपूर्ण वस्तु प्राप्त करने वाले शासनदेवियों को कैसे भूल जाते ? वस्तुतः वह समय चमत्कार प्रदर्शन का युग था। अतिशयोक्ति का समय था। वस्तु के अभाव में भी ख्याति कराने के लिये इस प्रकार से परवर्ती समुदाय चमत्कार का आश्रय लिया करते थे । अतः तत्कालीन ऐसी मनोवृत्ति से प्रेरित होकर प्रबन्धकारों ने चमत्कार का आश्रय लिया होगा, ऐसा प्रतीत होता है । रचना के समय अहर्निश जागरण और रचना प्रारंभ से अन्त तक अत्युग्र आचाम्ल तप का सेवन इत्यादि अनेक कारणों से आचार्य का शरीर व्याधि-जर्जरित हो गया। केवल व्याधि से शरीर ही जर्जरित नहीं हो गया था किन्तु दुर्जनों के कुवाक्यों ने मन पर भी बुरा आघात पहुँचाया था। कोई कहता था कि टीकाओं की रचना में इन्होंने उत्सूत्र-प्ररूपणा की है और कोई अन्य मिथ्या प्रचार कर इनके हृदय को दुखाता था। यही कारण है कि आचार्य अनशन ग्रहण करने को तैयार हो गये थे। किन्तु शासन का सौभाग्य था इसलिये आचार्य अनशन के विचार को अमल में न ला सके, अपितु दूसरा ही कार्य उन्होंने किया; वह कार्य था स्तम्भन पार्श्वनाथ का प्रकटीकरण । व्याधिग्रस्त अवस्था में भी आचार्य कमशः प्रवास करते हुए खंभात पधारे और १. प्राचार्य को क्या रोग हुआ था ? इस सम्बन्ध में सब ही प्रबन्धकार रोग का नाम पृथक्-पृथक् लिखते हैं । प्रभावक चरित ५० १३० के अनुसार रक्तविकार, उपदेशसप्ततिका के अनुसार कुष्ठरोग, तीर्थकल्प के पृ० १०४ पंक्ति २६ के अनुसार अतिसार रोग हुआ था। कुछ भी हो, चाह रक्तविकार हो, चाहे कुष्ठरोग हो और चाहे अतिसार हो, यह तो निश्चित है कि प्राचार्य व्याधि से पीडित अवश्य थे। २. प्रभावक चरित (अभयदेव चरित प० १३०-१३१) वल्लभ-भारती ] [ ३३
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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