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प्रा0 जिनेश्वर की साहित्य-सर्जना और शिष्य-परिवार
आचार्य जिनेश्वर न केवल वाक्चातुरी और शास्त्रचर्चा के ही आचार्य थे अपितु लेखिनी के भी प्रौढ़ आचार्य थे । आपने 'प्रमालक्ष्म' वृत्ति सह और आपके भ्राता श्रीबुद्धिसागरसूरि ने बुद्धिसागर-व्याकरण तथा छन्दःशास्त्र' रचकर जैन वाङमय में जैन-दर्शन
और व्याकरण साहित्य की जो अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की है वह साहित्य संसार के लिये संस्मरणीय है । आपके प्रणीत निम्न ग्रन्थ और प्राप्त होते हैं:१. अष्टक प्रकरण वृत्ति
र० सं० १०८० जालोर । श्लो० ३३७४, प्र. २. चैत्यवन्दनक ....
सं० १०६६ जालोर; (पत्र ३५, थाहरु भ०) ३. कथाकोष प्रकरण स्वोपज्ञवत्ति सह . सं० ११०८ श्लो० ५०००, प्र. ४. पञ्चलिङ्गी प्रकरण ५. निर्वाण लीलावती कथा
सं० १०६२ अप्राप्त ६. षट्स्थान प्रकरण (श्रावक वक्तव्यता) श्लो० १०३ ७, सर्वतीर्थ-महर्षि कुलक
गा० २६, ..८, वीरचरित्र
भप्राप्त ६. छन्दोनुशासन
(जैसलमेर ज्ञान भंडार, प्रतिलिपि मेरे संग्रह में) ____ आचार्य जिनेश्वरसूरि का शिष्य समुदाय भी अति विशाल था। आपने अपने स्व-हस्त से जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि अपरनाम जिनभद्रसूरि और हरिभद्रसूरि को आचार्य पद तथा धर्मदेव गणि, सुमति गणि, सहदेव गणि५ सुमति गणि' और विमल गणि को उपाध्याय पद प्रदान किया था। चार आचार्य और तीन उपाध्याय जहां शिष्य हों वहां मुनिमण्डल का अत्यधिक संख्या में होना स्वाभाविक ही है।
____आचार्य जिनेश्वरसूरि का स्वर्गवास कब और कहां हुआ निश्चित नहीं है। किन्तु आपकी सं० ११०८ में रचित कथाकोष प्रकरण की स्वोपज्ञ वृत्ति प्राप्त है । अतः इसके बाद ही आप इस नश्वर देह को छोड़ चुके हों, तथा आचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्गसूत्र की वृत्ति सं० ११२० में पूर्ण की है उसमें विद्यमान, राज्ये, इत्यादि शब्दों का प्रयोग न होने से सं० ११२० के पूर्व ही जिनेश्वरस रि का स्वर्गवास हो चुका था-मान सकते हैं।
१. उल्लेख देवभद्रीय महावीर चरित्र प्रशस्ति । . २. प्राचार्य जिनपतिसूरि प्रणीत टीका सह जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सूरत से प्रकाशित
३. आपकी रचित 'सुरसुन्दरी कहा' प्राकृत भाषा में उपलब्ध है। इसकी रचना सं० १०६५ चन्द्रावती
४. ६आपके हरिसिंहाचार्य, सर्वदेव गणि, सोमचन्द्र (जिनदत्तसूरि) आदि प्रमुख शिष्य थे। ५. आपके अशोकचन्द्राचार्य शिष्य थे। अशोकचन्द्र को जिनचन्द्रसूरि ने प्राचार्य पद दिया था।
आपके देवभद्राचार्य (पूर्व नाम गुणचन्द्र गणि) शिष्य थे जिनने प्रा० जिनवल्लभ पौर प्राचार्य जिनदत्त को प्राचार्य पद प्रदान किया था। प्रसन्नचन्द्राचार्य भी मापही के शिष्य थे।
६.
वल्लभ-भारती]
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