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________________ में इस घटना का स्पष्ट उल्लेख मिलता है और दूसरे प्रभावकचरितकार के लिए इस विषय में मौन धारण करने के लिए एक उपयुक्त कारण भी था । प्रभावकचरित अनेक प्रभावक चरित्रों के साथ-साथ सूराचार्य के चरित्र का भी वर्णन करता है जो उक्त शास्त्रार्थ में जिनेश्वराचार्य के साथ पराजित हुये बताये जाते हैं, इसलिये यदि सूराचार्य के गौरव को घटाने वाली किसी घटना का इसमें उल्लेख किया जाता तो वह ठीक न होता । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय कि प्रभावकचरितंकार बहुत ही उदारमना होते हुए भी स्वयं एक चैत्यवासी आचार्य थे; अतः सामाजिक शिष्टाचार की eft से भी उनके द्वारा चैत्यवासी प्रधानाचार्य की पराजय का उल्लेख किया जाना ठीक न होता । साथ ही मुनि जिनविजयजी के शब्दों में- “ प्रभावक चरित के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के एक बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशील अग्रणी थे । ये पंचाशरा पार्श्वनाथ के चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे । स्वभाव से बड़े उदग्र और वाद-विवाद प्रिय थे । अतः उनका इस वाद-विवाद में अग्ररूप से भाग लेना असंभवनीय नहीं परन्तु प्रासंगिक ही मालूम देता है। शास्त्राधार की दृष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वथा सत्यमय था । अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था । इसमें कोई संदेह नहीं कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित होकर जिनेश्वर का पक्ष राज सन्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मानभंग होना अपरिहार्य बना। इसलिये संभव है कि प्रभावकचरितकार को सूराचार्य के इस मानभंग का उनके चरित में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने इस प्रसंग को उक्त रूप में न आलेखित कर अपना मौन भाव ही प्रकट किया हो" " अतः यह ध्रुव सत्य है कि आचार्य जिनेश्वर का सूराचार्य के साथ दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ और उसमें सूराचार्य पराजित हुए । कुछ लोग अर्वाचीन पट्टावलियों के अनुसार इस वाद-विवाद के समय के विषय में भी निरर्थक वाद-विवाद को खड़ा करते हैं । यह चर्चा किस संवत में हुई थी ? उस के सम्बन्ध में युगप्रधान जिनदत्तसूरि, जिनपालोपाध्याय, सुमतिगणि, प्रभावकचरितकार आदि मौन हैं । इसका कारण भी यही है कि सब ही प्रबन्धकारों ने जनश्रुति, गीतार्थ ति के आधार से प्रबन्ध लिखे हैं और वे भी सब १०० और २५० वर्ष के मध्य काल में । वस्तुतः सम लेखकों ने संवत् के सम्बन्ध में मौनधारण कर ऐतिह्यता की रक्षा की है अन्यथा संवत् के उल्लेख में असावधानी होना सहज संभाव्य था । अतः यह सहज सिद्ध है कि महाराजा दुर्लभराज का राज्यकाल १०६६ से १०७८ तक का माना जाता है, उसी के मध्य में यह घटना हुई है। कथाकोष प्रस्ता० पृ० ४१. अर्वाचीन किन्हीं पट्टावलियो में सं० १०५० का उल्लेख मिलता है तो किसी में १०२४ का, जो श्रवण परम्परा का आधार रखता है। इस परम्परा में भी ६००, ८०० वर्ष के अन्तर में २.४ वर्ष का लेखन फरक रह जाय यह स्वाभाविक है। इसे चर्चा का रूप देना निरर्थक ही है । २८ ] १. २. [ बल्लभ-भारती ·
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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