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इसलिए समाज के मानस-पटल पर आचार्य जिनेश्वर के सुधारवाद की खरतरता ने जो प्रभाव डाला उसकी स्थायी अभिव्यक्ति होना निश्चिंत था। चाहे कोई राजा उसको मानता या न मानता, चाहे कोई आचार्य या सम्प्रदाय उसको स्वीकार करता या नहीं करता। किसी विरुद के महत्त्व को बढ़ाने के लिए राजमान्य होने की आवश्यकता नहीं । वसतिमार्ग को मान्यता किसने दी थी? चैत्यवासी नाम को रखने वाला कौन था? वर्तमान युग में हवाई जहाज को चीलगाड़ी कहने वाला और मोटर सायकिल को फटफटिया कहने वाला कौन था ? इसका उत्तर यही है कि समाज या जनता। अतः इस प्रकार के नामकरणों के मूलकर्ता के विषय में विवाद करना भाषाविज्ञान के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करना है।
जब यह कहा गया कि दुर्लभराज की राजसभा में "खरतर-विरुद" की सृष्टि हुई, तो चाहे राजा ने अपने मुख से उस शब्द का उच्चारण किया हो या न किया हो, यह एक ऐसा सत्य कथन था जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता. क्योंकि जिस विशेषता ने जिनेश्वर की विचार-धारा को “खरतरविरुद" दिया उसका सर्वप्रथम सफल और सार्थक विस्फोट यहीं हुआ था।
. कुछ लोगों ने शंका उठाई है कि दुर्लभराज की अध्यक्षता में आचार्य जिनेश्वर और सूराचार्य का उक्त शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं। इस प्रसंग में प्रभावकचरितकार का मौन रहना
भी प्रमाण रूप में रखा जा सकता है, परन्तु प्रथम तो प्रभावकचरितकार से पूर्ववर्ती सुमति• गणि और जिनपालोपाध्याय के प्रबन्धों में तथा उनके भी पूर्ववर्ती आचार्य जिनवल्लभ के पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरि प्रणीत गणधरसार्धशतक ५, गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र आदि काव्यों
१. हमारे इन विचारों की पुष्टि सुरत्राण अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि रचित पौषधविधि
प्रकरण वृत्ति की प्रशस्ति से भी होती है:"यैः पूज्यैरणहिल्लपत्तनपुरे द्यौसिद्धिशून्यक्षमा (१०८०) वर्षे दुर्लभराजपर्षदि पराजित्य प्रमाणोक्तिभिः। सूरीन् चैत्यनिवासिनः खरतरख्यातिजनैश्चापिते, श्रीमत् सूरिजिनेश्वराः समभवंस्तत्पट्टशोभाकराः ॥३॥ (तत्कालीन लिखित प्रति से, बीकानेर भुवनभक्तिज्ञानभण्डार, प्रति सं० १००, पत्र ६७) २. श्रीमान् दुर्लभराजाख्यस्तत्र चासीद् विशांपतिः।
गीष्पतेरप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणे ।।४८।। प्रभावकचरित ३. राज्यप्रधानपुरुषराकारितः श्रीदुर्लभराजमहाराजोऽपि महता भटचटपरिवारेणागत्योपविष्टस्तत्र ।
(जिनेश्वरचरित्र कथाकोष परिशिष्ट पृ० १२) ४. श्रीदुर्लभराजश्च पञ्चाशरीयदेवगृहे युष्माकमागमनमालोक्यते। (युगप्रधानाचार्य गुर्वावली पृ० ३) ५. अणहिल्लवाडए नाडयव्य दंसियसुपत्तसंदोहे । पहुरपए बहुकविदूसगे य सन्नायगाणुगए ॥६५॥ ___सढ्ढियदुल्लहराए सरसइम'कोवसोहिए सुहए। मझे रायसहं पविसिउरण लोयागमाणुमयं ॥६६॥
(गणधरसार्द्धशतक) ६. पुरमो दुल्लहमहिवल्लहस्स मणहिल्लवाडए पयडं। मुक्का वियारिऊणं सीहेण व दवलिंगिगया॥१०॥
(जिनदत्तसूरि रचित गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्र)
बल्लभ-भारती]
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