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पक्ष के समर्थक अग्रणी सूराचार्य जैसे महाविद्वान् और प्रबल सत्ताशील आचार्य के साथ शास्त्रार्थ कर उसमें विजय प्राप्त किया। X x अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने उनके पास यति दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त किया । उनकी शिष्य - सन्तति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाखा प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान्, क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य - उपाध्यायादि समर्थं साधु-पुरुष हुए। नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि, संवेग रंगशालादि ग्रन्थों के प्रणेता जिनचन्द्रसूरि सुरसुन्दरीचरित्र के कर्त्ता धनेश्वर अपरनाम जिनभद्रसूरि, आदिनाथ चरित्रादि के रचयिता वर्धमानसूरि, पार्श्वनाथ चरित्र एवं महावीर चरित्र के कर्त्ता गुणचन्द्र गणि अपरनाम देवभद्रसूरि, संघपट्टकादिक अनेक ग्रन्थों के प्रणेता जिनवल्लभसूरि - इत्यादि अनेकानेक बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान् और शास्त्रकार जो उस समय उत्पन्न हुए और जिनकी साहित्यिक उपासना से जैन वाङ् मय-भंडार बहुत कुछ सुसमृद्ध और सुप्रतिष्ठित बना - इन्हीं जिनेश्वरसूरि के शिष्यों प्रशिष्यों में से थे ।”
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनेश्वर से उद्भूत आचार-विचार की इस परम्परा को जहाँ इस परम्परा के अनुयायी लोग 'सुविहित' नाम प्रदान कर रहे थे, वहां उसके लिये एक दूसरे नामकरण का भी विधान हो रहा था । यह तो स्पष्ट ही है कि तत्कालीन चैत्यवासियों के विपरीत यह एक उग्र, प्रखर और कट्टर सुधारवादी परम्परा थी, जो न केवल चैत्यवासियों से पृथक् थी अपितु उन वसतिवासियों के मार्ग से भी पृथक् थी जो तत्कालीन चैत्यवासी शिथिलता को चुपचाप सहन करते हुए चले जा रहे थे। इसलिये स्वाभाविक था कि यह परम्परा अपनी उग्रता और कट्टरता की विशेषता को लेकर जनता में प्रसिद्ध हो जाती; सम्भवत: इसी आधार पर जनता ने इनको 'खरतर' कहना प्रारम्भ किया । इतिहास में ऐसे ही उदाहरण अन्यत्र मिलते हैं, ईसाई समाज में 'प्यूरीटन' नाम की उत्पत्ति इसी प्रकार के उग्र सुधारवाद के वातावरण को लेकर हुई और अपने ही देश में 'उदासी सम्प्रदाय' के नामकरण का आधार भी ऐसा ही प्रतीत होता है । इस प्रकार के नामों का जन्म स्वभावतः उसी समय होता है, जब इन नामों की आधारभूत विशेषता सब से अधिक आकर्षक, नवीन तथा विरोध प्राप्त होती है। जिनेश्वराचार्य की विचारधारा के लिये इस प्रकार का युग स्पष्टतः उस समय से प्रारम्भ होता है जब वह चैत्यवासियों के दुर्भेद्य गढ़ " अणहिलपुरपत्तन" में अपने प्रभाव को दिखलाते हैं । खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार “खरतर” विरुद जिनेश्वराचार्य को तत्कालीन राजा दुर्लभराज द्वारा दिया गया था। इस बात को लेकर बहुत निराधार विवाद चला है, परन्तु मेरी समझ में इसमें विवाद के लिए कोई स्थान नहीं है । राजा ने यह विरुद दिया हो अथवा न दिया हो, आचार्य जिनेश्वर की विचार-धारा की वह मूलभूत विशेषता जिसके कारण इस विरुद की कल्पना की जा सकती है, जनता के हृदय पर अवश्य ही अपना प्रभाव जमा चुकी होगी और उसी के फलस्वरूप जनता ने उनका जो नामकरण किया, वह समाज के मस्तिष्क पर अमिट अक्षरो में लिख गया । व्यक्ति चाहे वह चक्रवर्ती राजा ही क्यों न हो समाज सागर का एक क्षुद्र बुद-बुद है, जो अपना क्षणिक अस्तित्व दिखा कर चला जाता है । परन्तु समाज एक प्रवहमान सरिता है जो अक्षुण्ण रूप से अपनी युग-युग की सिद्धियों और स्मृतियों को समेटे चलता रहता है ।
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[ वल्लभ-भारती