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वास ही मुनियों के लिये समुचित है और वहीं पर निरपवाद ब्रह्मव्रत का पालन संभव हो सकता है ।" उनका कहना था कि - " वसतिवास अपवाद से रहित नहीं है, इसलिये त्याज्य है ।" सूराचार्य ने अनेक युक्तियों के द्वारा अपने पक्ष का समर्थन किया, परन्तु पंडित जिनेश्वर ने उन सभी युक्तियों का खण्डन बड़ी योग्यता के साथ करते हुए वसतिमार्ग का प्रतिपादन किया। उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट और कटु आलोचना करते हुए चैत्यवास के तत्कालीन कलुषित और अपवाद पूर्व वातावरण को मुनि जीवन के लिये सर्वथा अनुपयुक्त तथा असंगत बतलाया । पंडित जिनेश्वर की वाक्पटुता, अकाट्य तर्क शैली तथा प्रकाण्ड - पाण्डित्य से न केवल उनके प्रतिपक्षी ही पराभूत और पराजित हुए अपितु वहां पर बैठे हुए निष्पक्ष विद्वान् तथा गणमान्य लोग भी अत्यन्त प्रभावित हुए। कहा जाता है कि इसी के फलस्वरूप राजा दुर्लभराज ने सं० १०६६-१०७८ के मध्यकाल में करडी हट्टी ( प्रभावकचरितानुसार, व्रीहिहट्टी) में वसतिमार्गियों के निवास के लिये एक स्थान प्रदान किया और इस प्रकार गुजरात में वसतिमार्ग का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ ।
खरतर विरुद-प्राप्ति
गणधर सार्द्ध शतक बृहद्वृत्ति एवं युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में आचार्य जिनेश्वर से सम्बन्धित और भी कई घटनायें दी हुई हैं, परन्तु आचार्य जिनवल्लभ तथा उनके गच्छ एवं • संदेश को समझने के लिए हमें उनकी विशेष आवश्यकता नहीं है। ऊपर के वर्णन से इतना स्पष्ट है कि आचार्य जिनेश्वर ने जो उग्र आन्दोलन चलाया वह चैत्यवासियों के निर्मूलन का आन्दोलन था । इसका प्रमाण हमें उनके चैत्यवास विरोधी उस विचारधारा में भी मिलता है जिसकी अभिव्यक्ति इनके विभिन्न ग्रन्थों में भी स्थान स्थान पर हुई है।
इन्हीं के प्रारंभ किये हुए कार्य को उनके अनुयायी अभयदेवाचार्य, देवभद्राचार्य, वर्धमानाचार्य, जिनवल्लभाचार्य, जिनदत्तसूरि, जिनपतिसूरि आदि ने अपने-अपने ढंग से सम्पन्न करने की परम्परा को जारी रखा। और यह कहना भी असंगत न होगा कि इन्हीं के प्रयत्नों के फल स्वरूप १३ वीं शती के अन्तिम चरण तक चैत्यंवास प्रथा नष्ट सी हो गई । इसी प्रसंग को लेकर मुनि जिनविजयजी लिखते हैं':
" शास्त्रोक्त यतिधर्म के आचार और चैत्यवासी यतिजनों के उक्त व्यवहार में परस्पर बड़ा असामंजस्य देखकर और श्रमण भगवान् महावीर उपदिष्ट श्रमण धर्म की इस प्रकार प्रचलित विप्लवदशा से उद्विग्न होकर जिनेश्वरसूरि ने उसके प्रतिकार के निमित्त अपना एक सुविहित मार्ग - प्रचारक नया गण स्थापित किया और उन चैत्यवासी यतियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन शुरु किया । x x चौलुक्य नृपति दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासी
१. कथाकोष प्र० पृ० ४ ।
वल्लभ-भारती ]
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