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थी कि 'यहाँ केवल चैत्यवासी यतिजन ही ठहर सकते हैं।' राजा ने अपने पूर्वजों की व्यवस्था का पालन करना अपना धर्म बतलाते हुए कहा कि-"गुणियों का सन्मान भी तो अवश्य होना चाहिये" इसलिये राजा ने चैत्यवासियों से आये हुए मुनियों को वहां रहने देने के लिये आग्रह किया। कहते हैं कि इसी समय ज्ञानदेव नामक शैवाचार्य जो कि राजा का गुरु था वहां आ पहुँचा । राजा ने सत्कार पूर्वक गुरु का स्वागत करके उनसे निवेदन किया-'हे प्रभो! ये जैन ऋषि लोग यहां आये हुए हैं, इनको आप उपाश्रय प्रदान करें।' ऐसा सुनकर वह तपस्वी शैव हंसते हुए बोला “महाराज! आप गुणियों का सत्कार कर रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है। मैं इसको अपने उपदेशों से होने वाले फलों की निधि समझता है । वस्तुतः शिव और जिन एक ही हैं । केवल मूर्खतावश इनको और मान लिया गया है । दर्शनों में भेद मानना मिथ्यामति का चिह्न है।" ऐसा कहकर उन्होंने "त्रिपुरुष प्रासाद” नामक मुख्य शिव-मन्दिर के पास ही कणहट्टी में उपाश्रय बनवाने के लिये अनुमति प्रदान की और एक ब्राह्मण को यह कार्य करने के लिये नियुक्त किया और थोड़े दिनों में ही उपाश्रय तैयार हो गया। संभवतः इसी समय से वसतियों अर्थात् उपाश्रयों की परम्परा शुरु हो गई। प्रभावकचरितकार ने लिखा है:
ततः प्रभृति सज्जज्ञे वसतीनां परम्परा ।
महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः । ८६॥ गणधर साद्धं शतक बृहद्वृत्ति तथा युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार चैत्यवासी लोग केवल उक्त दो ही प्रयत्न करके चुप नहीं बैठ गये अपितु उन्होंने एक वाद-विवाद में नवागन्तुक मुनियों को नीचा दिखलाने का भी प्रयत्न किया । वाद-विवाद राजा दुर्लभराज के सन्मुख होना तय हुआ। स्थान पंचासर पार्श्वनाथ का बड़ा मन्दिर चुना गया। कहते हैं कि निश्चित दिवस पर सूराचार्य के नेतृत्व में ८४ चैत्यवासी आचार्य खूब सज-धज कर वहां पर उपस्थित हए । ठीक समय पर राजा भी वहां आ गया और आचार्य वर्धमान तथा उनके शिष्य आदि भी वहां पर पधारे । राजा ने दोनों पक्षों के लोगों को ताम्बूल आदि से सत्कृत करना चाहा। चैत्यवासियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। परन्तु जब वर्धमान के पक्ष की बारी आई तो उन्होने उत्तर दिया कि साधुओं को ताम्बूल भक्षण का निषेध है और उसका खाना गोमांस भक्षण के बराबर है:
"ब्रह्मचारी यतीनां च विधवानां च योषिताम्।
ताम्बूलभक्षरणं विप्र गोमांसा न्न विशिष्यते ।" इसके पश्चात् शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । एक ओर से पण्डित जिनेश्वर और दूसरी ओर से सूराचार्य थे। शास्त्रार्थ सूराचार्य ने प्रारम्भ किया। उनका कहना था कि 'जिनगृह१. गुणि नामर्चनां यूयं, कुरुध्वे विधुतैनसाम् । सोऽस्माकमुपदेशानां. फलपाक: श्रियां निधिः ।।८।।
शिव एव जिनो बाहत्यागात् परपदस्थितः । दर्शनेषु विभेदो हि, चिह्न मिथ्यामतेरिदं ॥८६॥ [प्र० च] २. श्रीमान दुर्लभराजाख्यस्तत्र चासीद् विशांपतिः।
गीष्पतेरप्युपाध्यायो नीतिविक्रमशिक्षणे ।४८। [प्रभावक चरित ] राज्यप्रधानपुरुषराकारितः श्रीदुर्लभराजमहाराजोऽपि महता भटचटपरिवारोणागत्योपविष्टस्तत्र (जिनेश्वरसूरिचरित्र कथाकोष परिशिष्ट पृ०१२)
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[ वल्लभ-भारती