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प्रभावकचरितकार के अनुसार इन साधुओं के आने से पुरोहित के घर पर नगर के पण्डितों और विद्वानों का जमघट होने लगा। प्रतिदिन मध्याह्न को याज्ञिक, स्मार्त, दीक्षित, अग्निहोत्री आदि ब्राह्मण आते और शास्त्र-चर्चा करते । कहते हैं कि वहां ऐसा विद्याविनोद होने लगा, जैसा ब्रह्मा की सभा में ही संभव हो सकता था । इसकी प्रसिद्धि नगर में फैली और चैत्यवासो लोग भी वहां आये । इन वसतिवासी साधुओं की इतनी प्रतिष्ठा देखकर उनको बहुत क्रोध आया और उन्होंने आचार्य वर्धमान तथा उनके शिष्यों से कहा कि-'आप नगर से बाहर चले जाईये, क्योंकि यहां पर चैत्य-वाह्य श्वेताम्बर लोग नहीं ठहर सकते।' इस कथन पर राज-पुरोहित ने आपत्ति की और कहा कि-'इस बात का निर्णय तो राज-सभा में होगा। ऐसा कहे जाने पर वे सब अपने समुदाय महित राजा के पास गये। जिनपालोपाध्याय और सुमति गणि के प्रबन्धों के अनुसार यह घटना कुछ दूसरे ढंग से हुई है। कहा जाता है कि जब वसतिवासी साधुओं के नगर में आने की बात चारों ओर फैल गई तो चैत्यवासियों ने उसका प्रतिकार करने का निश्चय किया । उन दिनों चैत्यालयों में पाठशालाएं लगा करती थों। जिनमें विभिन्न वर्गों के बहुत से विद्यार्थो पढ़ने आया करते थे। चैत्यवासियों ने इन्हीं बच्चों को अपने हाथ की कठपुतली बनाया । उनको बतासे इत्यादि का प्रलोभन देकर इस बात के लिये राजी कर लिया कि वे नगर में यह समाचार फैलायें कि ''कुछ बाहरी गुप्तचर यतियों के वेष में नगर में आए हुए हैं, जिनको कि राजपुरोहित ने अपने घर पर शरण दे रखी है।" फैलते-फैलते यह सारी खबर राजा के कान में पहुँची और उसने तुरन्त पुरोहित को बुलाकर पूछा । पुरोहित ने इस बात को बिलकुल ही झूठ बतलाया और उसने कहा कि, मेरे मकान पर जो महात्मा लोग ठहरे हैं वे साक्षात धर्म की मूर्ति हैं और उन ठहरे हये साधुओं पर जो भी दोष लगाया गया है वह बिल्कुल झूठा है। उसने यह भी घोषणा की कि यदि कोई इन साधुओं को गुप्तचर सिद्ध कर दे तो मैं एक लाख पारुत्थ (एक तरह की स्वर्ण मुद्रा) इनाम में दूंगा। प्रभावकचरित के अनुसार पुरोहित ने राजसभा में केवल यही कहा कि मैंने केवलं गुण-ग्राहकता की दृष्टि से ही इन साधुओं को आश्रय दिया है और इन चैत्यवासियों ने इनका बहुत अपमान किया है। इसमें यदि मेरा कोई अपराध हो तो मैं दण्डग्रहण करने के लिये तैयार हूँ। कहते हैं कि राजा समदर्शी था। वह मुस्करा कर बोला :
मत्पुरे गुणिनः कस्माद्देशान्तरत मागताः।
वसन्तः केन वार्येत को दोषस्तत्र दृश्यते ॥ इस पर चैत्यवासियों ने राजा को याद दिलाया कि उस नगर के संस्थापक चापोत्कट वंशीय वनराज का पालन-पोषण श्री शीलगुणसूरिजी ने किया था और इसी के फलस्वरूप वनराज ने “वनराज-विहार" नामक पार्श्वनाथ मन्दिर की स्थापना करके यह व्यवस्था दे दी १. मध्याह्न याज्ञिकस्मात दीक्षितानग्निहोत्रिणः ।
प्राय दर्शितो तत्र निव्यूं ढौ तत्परीक्षया ।।६२।। यावद् विद्या विनोदोऽयं विरिञ्चेरेव पर्पदि [प्र. च०] मया च गुणग्राह्यत्वात् स्थापितावाश्रये निजे।
भद्रपुत्रा अमीभिमें प्रहिताश्चैत्यवासिभिः ।।६।। वल्लभ-भारती]
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