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________________ यह सुनकर पुरोहित बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनके प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाते हुए पूछा कि "आप कहां पर ठहरे हुए हैं ?" इसके उत्तर में उन्होंने अपनी सारी कठिनाई पुरोहित के सामने रक्खी। उन्होंने बतलाया कि यहां चैत्यवासियों का अत्यधिक प्रभाव होने के कारण हमको कोई ठहरने का स्थान नहीं देता । राजपुरोहित ने विद्वानों और महात्माओं का आदर करना अपना कर्त्तव्य समझकर अपनी "चन्द्रशाला" में इनको रहने के निमित्त स्थान दे दिया । आचार्य-द्वय भी अपने साधुओं सहित वहां रहने लगे और ४२ दोषों से मुक्त निस्पृह भाव से भिक्षा ग्रहण करने लगे । गणधर सार्द्धशतक वृत्ति तथा युग० गुर्वावली में इस प्रसंग को कुछ विस्तार के साथ दिया गया है। उन ग्रन्थों के अनुसार वर्धमानसूरि अपने १८ शिष्यों सहित पाटन गये थे और वहां कोई स्थान न मिलने पर कहीं किसी खुली पडशाल में डेरा डाला। तब जिनेश्वर पंडित ने कहा कि “गुरु महाराज" इस तरह बैठे रहने से क्या होगा ? गुरुजी ने कहा- "तो फिर क्या किया जाय ?" जिनेश्वर बोले- "यदि आपकी आज्ञा हो तो वह सामने जो बड़ा सा मकान दिखाई देता है, वहां मैं जाऊं और देखूं कि कहीं हमें कोई आश्रय मिल सकता है या नहीं ? गुरुजी ने कहा - "अच्छी बात है, जाओ ।" फिर गुरुजी के चरणों को नमस्कार करके जिनेश्वर उस मकान पर पहुँचे । वह बड़ा मकान नृपति दुर्लभराज स्नानाभ्यंगन करवा रहा था। जिनेश्वर ने उसको आशीर्वाद दिया । उसे सुनकर पुरोहित होता है । के राजपुरोहित का था । उस समय पुरोहित एक सुन्दर भाव वाला संस्कृत श्लोक बनाकर खुश हुआ, बोला, कोई विचक्षण व्रती मालूम पुरोहित के मकान के अन्दर के भाग में बहुत से छात्र वेद पाठ कर रहे थे । इनके पाठ में उन्हें कहीं-कहीं अशुद्ध उच्चारण सुनाई दिया। तब जिनेश्वर ने कहा " यह पाठोच्चार ठीक नहीं है, ऐसा करना चाहिये ।" यह सुनकर पुरोहित ने कहा - अहो ! शूद्रों को वेदपाठ करने का अधिकार नहीं है । इसके उत्तर में जिनेश्वर ने कहा- हम शूद्र नहीं हैं। सूत्र और अर्थ दोनों ही दृष्टि से हम चतुर्वेदी ब्राह्मण हैं । पुरोहित सुनकर सन्तुष्ट हुआ। बोला- किस देश से आ रहे हो ? जिनेश्वर - दिल्ली की तरफ से । . पुरोहित-कहां पर ठहरे हुए हो ? जिनेश्वर - " शुल्कशाला (दाणचौकी) के दालान में हम मय अपने गुरु के सब १८ यति हैं। यहां का सब यतिगण हमारा विरोधी होने से हमें कहीं कोई उतरने की जगह नहीं दे रहा है। पुरोहित ने कहा- मेरे उस चतुःशाला वाले घर में एक पडदा लगाकर, एक पडशाल में आप लोग ठहर सकते हैं। उधर के एक दरवाजे से बाहर आ जा सकते हैं। आइये और सुख से रहिये । २२] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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