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धीरे-धीरे उनके मन में दीक्षा के लिये इच्छा जगी और उनकी प्रार्थना पर तथा सेठ की अनु
ति पर वर्धमानाचार्य ने उन दोनों को दीक्षा प्रदान की। दीक्षा लेते ही उन्होंने जैन-शास्त्रों का अध्ययन बड़ी लगन तथा तत्परता के साथ प्रारम्भ किया और वे थोड़े ही समय में उनमें पारंगत हो गए। वर्धमानाचार्य ने यह देखकर, उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उनको आचार्यपद प्रदान किया। उस समय से वे क्रमशः जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रख्यात हुए।
वर्धमानाचार्य को इन दोनों भाईयों की प्रतिभा एवं योग्यता पर विश्वास था और उन्होंने समझ लिया था कि चैत्यवासियों के मिथ्याचार का प्रतिकार इन्हीं के द्वारा हो सकता है। इसीलिये उन्होंने इन दोनों को यह भार ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया और आदेश दिया कि तुम लोग अणहिल पत्तन को जाओ और वहां सुविहित साधुओं के लिये जो विघ्नबाधाएं हों उनको अपनी शक्ति और बुध्दि से दूर करो :
. जिनेश्वरस्ततः सूरिरपरो बुद्धिसागरः ।
नामस्याँ विश्रुतो पूज्यविहारेऽनुमतौ तदा ॥४३॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात्तत्रावस्थानवारणात् ॥४४॥ यवाभ्यामपनेतव्यं शक्त्या बद्धया च तत्किल।
यदिदानीन्तने काले नास्ति प्राज्ञो भवत्समः ॥४५॥ ___ इन दोनों ने भी गुरु की आज्ञा को सिर पर धारण कर गुर्जर प्रदेश की ओर विहार करना प्रारम्भ कर दिया और धीरे-धीरे वे अणहिलपत्तन (पाटण) में पहुंच गये।
... पत्तन में इनको बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा । चैत्यवासियों का प्रमुख गढ होने के कारण, इन लोगों को वहां कहीं रहने का भी स्थान न मिला । वे घर-घर घूमते फिरे। अन्त में वें वहां के राजा दुर्लभराज के पुरोहित सोमेश्वर के मकान पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं विद्वत्ता के संकेत स्वरूप वेद मंत्रों का उच्चारण किया और उन्होंने वेद के ब्राह्म, पैत्य तथा दैवत रहस्यों का बड़ी योग्यता पूर्वक उद्घाटन किया। उस वेद-ध्वनि को सुनकर पुरोहित सोमेश्वर स्तम्भित सा हो गया। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि उसकी समग्र इन्द्रियों की चेतनता उसकी श्रुतियों में ही आगई है। उसने अपने भाई द्वारा इन दोनों भाईयों को बुलवाया। उनके आने पर सोमेश्वर अपना आसन छोड़कर खड़ा हो गया और उनको आसन प्रदान किया । परन्तु वे अपने शुध्द कम्बलों पर बैठ गये। परोहित को आशीर्वाद देते समय दोनों आनार्यों ने जो शब्द कहे, उनमें न केवल उनका अगाध पाण्डित्य प्रकट हो रहा था, अपितु धार्मिक सहिष्णुता और उदारता भी प्रकट हो रही थी। उन्होंने कहा :
प्रपाणिपादो ह्यमनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः । स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता, शिवो ह्यरुपी स जिनोऽवताद् वः ॥
१. तद्ध्वानध्याननिर्मग्नचेताः स्तम्भितवत् सदा।
समग्रेन्द्रियचैतन्यं, श्रुत्योरेव स नीतवान् । ५२ । (प्र० च०:)
वल्लभ-भारती]
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