________________
आचार्य जिनेश्वर और पाटन शास्त्रार्थ विजय
'प्रभावकचरित' के अनुसार ये मूलतः मध्यदेश अर्थात् वर्त्तमान उत्तरप्रदेश का मध्यभाग के निवासी थे । ये कृष्ण नामक ब्राह्मण के पुत्र थे । इनका नाम पहले श्रीधर था और इनके एक भाई था जिसका नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े प्रतिभाशाली और मेधावी थे । उन्होंने वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, षड्दर्शन शास्त्र और स्मृतियों का अध्ययन विशेष मनोयोग से किया था । विद्या- पारंगत होकर उनमें देशाटन की प्रवृत्ति जगी और वे घूमते-घूमते तत्कालीन महासांस्कृतिक केन्द्र धारानगरी में पहुँचे। वहां पर न केवल राजा ही विद्वानों और विद्या का आदर करता था अपितु बहुत से सेठ भी राजा का इस बात में अनुकरण करते थे। ऐसा ही उदारमना और दानशील एक सेठ लक्ष्मीपति नाम का था । वह जैन-धर्मावलम्बी था और बाहर से जो विद्वान् अतिथि आते थे उनका स्वागत-सत्कार करने के लिये सदा तैयार रहता था । इसी सेठ के यहां ये दोनों भाई पहुंचे। ये आकार-प्रकार से बड़े तेजस्वी और प्रतिभा सम्पन्न प्रतीत होते थे । लक्ष्मीपति इनसे बहुत प्रभावित हुआ और श्रद्धा पूर्वक इनको निरन्तर भोजन कराने लगा । वे प्रतिदिन उसके यहां भोजन करने जाते और उसके मकान और दुकान पर होने वाले सारे व्यापार को भी देखते थे । सेठ बहुत बड़ा व्यवसायी था और उसके वहां रुपये का लेन-देन बहुत अधिक होता था । उन दिनों मकान या दुकानों की दीवारों पर तात्कालिक स्मृतिरूप हिसाब लिखने की प्रथा थी। इस सेठ के यहां भी यह हिसाबकिताब दीवाल पर लिखा रहता था । श्रीधर और श्रीपति की स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि प्रतिदिन देखते-देखते उन दीवारों पर लिखा हुआ सारा हिसाब-किताब उन्हें याद हो गया ।
एक बार सेठ के मकान में आग लग गई। उसकी बहुत सी वस्तुएं जलकर भस्म हो गईं, परन्तु सेठ को इन वस्तुओं के जल जाने से इतना दुःख नहीं हुआ जितना दीवार पर लिखे हुए हिसाब-किताब के नष्ट हो जाने से । वह सोचता था कि जो सम्पति नष्ट हो गई है वह तो फिर हो सकती है परन्तु हिसाब-किताब नष्ट हो जाने से उसे अपने व्यापारियों के साथ जिस झंझट और झगड़े का व्यवहार करना पड़ेगा, उससे उसकी धर्म-भावना को भयंकर आघात पहुंच सकता है। सेठ की इस कठिनाई को देख कर इन दोनों भाईयों ने कहा कि दीवार पर जो कुछ लिखा था वह तो हम लोगों को अक्षरश: याद है । यह सुनकर सेठ अत्यन्त प्रसन्न हुआ और इन दोनों भाईयों ने सारा हिसाब-किताब अथ से लेकर इति तक ब्योरे के साथ ज्यों का त्यों लिखवा दिया। इस घटना से दोनों भाइयों का उस सेठ के घर में बहुत अधिक आदर-सत्कार होने लगा और वे उसी के घर पर रहने लगे ।
इसी सेठ ने इन दोनों भाइयों का साक्षात्कार वर्धमानाचार्य से करवाया । ये दोनों भाई बड़े ही शान्त और संयमी थे और उनका चरित्र बहुत ही उदात्त था । इसलिये सेठ ने सोचा कि आचार्य के दर्शन करके ये लोग बहुत प्रसन्न होंगे । श्रीधर और श्रीपति जब वर्धमानाचार्य के पास पहुँचे तो वे उनके तेज और तप से अत्यन्त प्रभावित हुए । आचार्य ने भी सुन्दर लक्षणों से युक्त उनके आकार-प्रकार को देखकर संतोष प्राप्त किया। दोनों भाई निरन्तर आचार्य के पास आने जाने लगे और शास्त्रचर्चा करके सन्तोष ग्रहण करने लगे ।
२० ]
[ वल्लभ-भारती