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पर्यन्त उच्च त्याग का प्रयत्न किया । गणधर-सार्द्ध शतक बृहद्वृत्ति एवं युगप्रधानाचार्य गुवांवली के अनुसार श्री वर्धमानाचार्य अंभोहर प्रदेश के किसी चैत्य से सम्बन्ध रखते थे । कहा जाता है कि वहां जिनचन्द्राचार्य नाम के एक चैत्यवासी साधु थे जो ८४ ठिकानों के नायक थे। इन्हीं के शिष्य वर्धमान थे। "होनहार बिरवान के होत चिकने पात" इस कहावत के अनसार वर्धमान के भावी जीवन के बीज उनके प्रारम्भिक जीवन में ही प्रकट हो गये। घटना इस प्रकार है:-वर्धमान अपने गुरु जिनचन्द्राचार्य से सिद्धान्त-वाचना ले रहे थे । उसमें जिन-मन्दिर के विषय की ८४ आशातनाओं के प्रसंग का वर्णन आया। इनका वर्णन पढ़कर वर्धमान के मन में स्वाभावतः ही इन आशातनाओं को दूर करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हई। इन्हीं के निवारण में ही कल्याण समझ कर उन्होंने अपने गुरु से अपने मन की बात कही। गुरु ने सोचा कि उनके शिष्य के विचार तो चैत्यवास की जड को ही हिला देने वाले हैं और यदि उसकी यही विचारधारा चलती रही तो अपने इस योग्य शिष्य को ही खो बैठेगे । अत. उन्होंने वर्धमान को मोहने के लिये उन्हें आचार्य बनाकर अपना सारा वैभवपूर्ण अधिकार उनको दे डाला । परन्तु सच्चा विराग प्रलोभनों की शृंखलाओं में नहीं बांधा जा सकता । जिनचन्द्राचार्य के सारे प्रयत्न वर्धमान की विराग भावना को कुचलने में असमर्थ रहे और अन्त में उनको विवश हो कर वर्धमान को विदा देनी पड़ी। गुरु की अनुमति लेकर कुछ यतियों के साथ वर्धमान वहां से निकले और दिल्ली पहुंचे। वहां पर उन्हें उद्योतनाचार्य मिले जो सदा ही शास्त्र-सम्मत संयमी-जीवन का पालन करते हुए विचरण किया करते थे । वर्धमान उनके शिष्य बने और उद्योतनाचार्य ने उन्हें योग्य समझ कर आचार्य पद से विभूषित किया।
. वर्धमानाचार्य ने यद्यपि स्वयं चैत्यवास त्याग करके त्याग-मय जीवन ग्रहण किया था, परन्तु फिर भी उनके द्वारा चैत्यवास के प्रति किसी व्यापक आन्दोलन का जन्म न हो सका। इस आन्दोलन का सूत्रपात उनके योग्य शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि के हाथों से हुआ। जिनके जीवन के विषय में हमें प्रभावकचरित आदि से पर्याप्त सामग्री मिलती है।
१. कहा जाता है कि सूरिमन्त्र प्राप्त करने पर वर्धमानसूरि को यह संकल्प हया कि इस सूरिमन्त्र का
अधिष्ठाता कौन है ? यह जानकारी प्राप्त करने के लिये उनने तीन उपवास किये । धरणेन्द्र उपस्थित हुआ और उसने कहा कि मैं इसका अधिष्ठाता है । साथ ही इन्द्र ने इस मन्त्र के प्रत्येक पद का क्या फल है, इसका भी ज्ञान प्राचार्य को करवाया। प्राचार्य को इस मन्त्र का फिर बहुत संस्फुरण होने लगा । अत: वे संस्फूराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हए।
(यु० गु०) २. आपके प्रणीत ४ ग्रन्थ प्राप्त होते हैं:
१. उपदेशपद टीका. (र० सं० १०५५) २. उपदेशमाला बृहद्वृत्ति ३. उपमितिभवप्रपंचकथा समुच्चय ४. वीरपारणक स्तोत्र गा. ४६ ५. वर्षमानजिनस्तुति गा० ४ (प्रादिपद-पापा धाधानि) इस स्तुति के विषय में गणि श्री बुद्धि
मुनिजी ने सूचित किया है।
वल्लभ-भारती ]
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