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भी इन चैत्यवासी यतिजनों का बहुत बड़ा प्रभाव था। जैन-धर्मशास्त्रों के अतिरिक्त ज्योतिष, वैद्यक और मन्त्र, तन्त्रादि शास्त्रों और उनके व्यावहारिक प्रयोगों के विषय में भी ये जैन यतिगण बहुत विज्ञ और प्रमाणभूत माने जाते थे। धर्माचार्य के खास कार्यों और व्यवसायों के सिवाय ये व्यावहारिक विषयों में भी बहुत कुछ योगदान किया करते थे। जैन गृहस्थों के बच्चों की व्यावहारिक शिक्षा का काम प्रायः इन्हीं यतिजनों के अधीन था और इनकी पाठशालाओं में जैनेतर गणमान्य सेठ साहकारों एवं उच्चकोटि के राज-दरबारी पुरुषों के बच्चे भी बड़ी उत्सुकता पूर्वक शिक्षालाभ प्राप्त किया करते थे। इस प्रकार राजवर्ग और जन समाज में इन चैत्यवासी यतिजनों की बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातों में इनकी धाक बैठी हुई थी। पर इनका यह सब व्यवहार जैन-शास्त्र की दृष्टि से यतिमार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था।"
गुरु-परम्परा
प्राचार्य वर्धमानसूरि चैत्यवास की इस दुर्दशा को देखकर कई चैत्यवासी यतिजनों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था, परन्तु उसका प्रतीकार करने का साहस विरले ही कर सकते थे। ऐसे साहसी और सच्चे यतियों में श्री वर्धमानाचार्य का नाम लिया जा सकता है; जिन्होंने ८४ चैत्य-. स्थानों के अधिकार और वैभव को छोड़ कर सच्चे साधु-जीवन को बिताने का संकल्प किया। प्रभावकचरित में आचार्य वर्धमान के विषय में यह उल्लेख मिलता है :
इतः सपादलक्षेऽस्ति, नाम्ना कूर्चपुरं पुरम् । मषीकुर्चकमाधातु, यदलं शास्त्रकानने ॥३१॥ मल्लभूपालपौत्रोऽस्ति, प्राक पोत्रीव धराधरः । श्रीमान् भुवनपालाख्यो, विख्यातः सान्वयाभिधः ॥३२॥ तत्रासीत् प्रशमश्रीभिर्वद्धं मानगुणोदधिः । श्रीवर्धमान इत्याख्यः, सूरिः ससारपारभूः ॥३३॥ चतुभिरधिकाशीतिश्चैत्यानां येन तत्यजे । सिद्धान्ताभ्यासतः सत्यतत्त्वं विज्ञाय संसृतेः ॥३४॥ अन्यथा विहरन् घारापुर्या धाराधरोपमः ।
मागाद् वागब्रह्मधाराभिर्जनमुज्जीवयन्नयन् ॥३५॥
इस प्रकार पता चलता है कि वर्धमानसूरि स्वयं चैत्यवासी थे, परन्तु उन्हें शास्त्रों के अध्ययन और अभ्यास से आडम्बर पूर्ण चैत्यवासी जीवन के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गई और चैत्यवासियों के शिथिलाचार तथा भ्रष्टाचार से क्षोभ उत्पन्न हुआ। इसी के फलस्वरूप उन्होंने चैत्यवास को सर्वथा छोड़कर, त्याग और तपस्या के जीवन का संकल्प लेकर जीवन १८]
[ वल्लभ-भारती