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आ० जिनेश्वर के पश्चात् उनके पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि (अभयदेवसूरि के बृहद् गुरुभ्राता) हुए। आपके सम्बन्ध में कोई इतिवृत्त प्राप्त नहीं है । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि आप बहुश्रु तज्ञ गीतार्थ थे आपने अपने लघु गुरु-बन्धु, गीतार्थ, विख्यात कीत्तियुक्त श्रीअभयदेवसूरि की अभ्यर्थना से 'संवेगरङ्गशाला' नामक प्राकृत कथाग्रन्थ की १००५० श्लोक बृहत्परिमाण में सं० ११२५ में रचना पूर्ण को। -
अभयदेवसरि जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर गच्छनायक के रूप में हमें आचार्य अभयदेवसूरि के दर्शन होते हैं । आपके प्रारम्भिक जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में हमें केवल प्रभावक-चरित में ही किञ्चित् उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसके अनुसार आचार्य जिनेश्वर मूरि सं० १०८० के पश्चात् जाबालिपुर (जालोर) से विहार करते हुए मालव प्रदेश (मध्य भारत) की तत्कालीन प्रसिद्ध राज- . धानी धारानगरी में पधारे। चातुर्मास भी संभवतः वहीं किया। आपका प्रवचन अहर्निश होता था।
इसी नगरी में श्रेष्ठी महीधर नामका एक विचक्षण व्यापारी रहता था। धनदेवी नामकी पत्नी थी और अभयकुमार नामक सौभाग्यशाली पुत्र था। आचार्य जिनेश्वर का प्रभावशाली व्याख्यान (प्रवचन) सुनने के लिये वहां की प्रायः समग्र जनता उपस्थित हुआ करती थी। महीधरपुत्र अभयकुमार भी सर्वदा प्रवचन सुना करता था। आचार्यश्री के वैराग्य-पोषक, आत्मतत्त्व-निर्दशक, सिध्दान्तों का विवेचनीय प्रतिपादक, शान्तरससंवर्धक उपदेश से अभयकुमार प्रभावित हुआ। अभयकुमार ने संसार की नाशशीलता, क्षणिकता समझकर, स्वविचारों को दृढकर, माता-पिता की अनमति प्राप्त करके श्रीजिनेश्वरसरि के पास दीक्षा ग्रहण की। आचार्य ने अभयकुमार का नाम अभयदेवमुनि रखा।
श्रीजिनेश्वरसूरि के पास ही स्वशास्त्र और परणास्त्र का विधिवत् अध्ययन अभयदेव मुनि ने किया। आत्मशुद्धि के लिये अभयकुमार ने दीक्षा ग्रहण की थी। इसलिये वे उग्र तपश्चर्या भी करने लगे । आपकी योग्यता और प्रतिभा देखकर आचार्य जिनेश्वर ने आपको आचार्य पद प्रदान किया था।
, उस समय के प्रमुख-प्रमुख आचार्य सैद्धान्तिक-आगमों का अध्ययन छोड़कर समयोचित धनुर्नेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक, काम-शास्त्र, नाट्य-शास्त्र आदि विषयों में पारङ्गत होते जा रहे थे। मन्त्र-तन्त्र और यन्त्र विद्या के चमत्कारों से भिन्न भिन्न स्थलों पर राजाओं पर प्रभावे जमाते जा रहे थे। चैत्यवास की प्रथा प्रौढता को प्राप्त कर चुकी थी, जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है । ऐसी अवस्था में आगमों के अभ्यास की सुरक्षित परम्परा नष्ट हो जाने से शुद्ध क्रियाचार का पालन भी असंभव-सा होता जा रहा था। आचारांग और सूत्रकृतांग पर आचार्य शीलांक कृत विवेचन के अतिरिक्त पूरे अंग साहित्य पर कोई विवेचन प्राप्त ही नहीं था। जैन-आगमों में मुख्य स्थान ११ अंग का ही है। इनमें नव अंग तो अछूत ही से थे। मूलपाठ भी लेखकों की अशुद्ध-परम्परा के कारण अशुद्धतर होते
[ वल्लभ-भारती
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