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जा रहे थे । वाचनाभेदों की बहुलता मूल-आगमों को कूट आगम सदृश कर रहे थे । जो कुछ वाचन-मनन की प्रणाली थी वह कूट पाठों की बहुलता से नष्ट होती जा रही थी।
... ऐसी परिस्थिति देखकर श्रीअभयदेवसूरि ने अपनी समयज्ञता का परिचय दिया। अपनी बहश्र तज्ञता का उपयोग समाज के लिये हो और आगम-ग्रन्थ कट ग्रन्थ न हो सर्वदा के लिये वाचन-सुलभ रहें इस आशय से अपनी लेखिनी तृतीय स्थानाङ्गसूत्र पर उठाई और सकुशल सफलता पूर्वक इसकी टीका सं० ११२० में पूर्ण की। इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण कार्य प्रवास इत्यादि में नहीं हो सकते । और न इनके करने में काल-विकाल या ग्राह्या ग्राह्य के फेर में ही पड़ा जा सकता है । अतएव एक मात्र अपने पवित्र संकल्प की पूर्ति का ध्यान रखते हुए श्रीअभयदेवसूरि ने अपना कार्य क्षेत्र अणहिलपुर पतन चुना और वहीं श्रीजिनेश्वरसूरि द्वारा पवित्रित करडि हट्टी में निवास किया। प्रायः सं० ११२० से ११२८ तक का समय आपका वहीं पूर्ण हुआ। मध्य में ११२४ में आप अवश्य धवलका रहे थे और वहां धनपति बहुल और नन्दिक सेठ के घर में रहकर पञ्चाशक पर टीका की रचना पूर्ण की थी।
___ इतने लम्बे समय तक एक स्थान पर ही रहने का एक कारण और भी था । श्री अभयदेवसूरि ने ज्यों ही टीका-लेखन का कार्य प्रारम्भ किया त्यों ही उनके मस्तिष्क में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं यदि इन टीकाओं का संशोधन अपने ही सुविहित विद्वानों से कराकर प्रामाण्य की मोहर लगवा दूंगा तो पर्याप्त न होगा, क्योंकि आज सुविहितों का समुदाय अत्यल्प है, चैत्यवासी समुदाय अत्यन्त विशाल है और पूज्य श्री जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवास उन्मूलन का कार्य प्रारम्भ किया है उससे समग्र चैत्यवासी आचार्य क्षुब्ध हो रहे हैं; अतः वे यदि इसे अमान्य कर देंगे तथा इसमें दूपण शोधते रहेंगे तो टीकाएं एकपक्षीय हो जायेंगी; जो सचमुच में मेरे भगीरथ प्रयत्न पर पानी फेर देंगी। अतः ऐसी अवस्था में अपने किसी चैत्यवासी प्रौढ़ एवं दिग्गज आचार्य का आश्रय लें और उससे प्रामाणिकता की मोहर लगवावें तो सर्वश्रेष्ठ होगा। ऐसा विचार कर, हृदय की अत्यधिक विशालता से चैत्यवासी आचार्यों की तरफ दृष्टिपात किया तो उन्हें उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, उदार दृष्टिवाले, शान्तमना द्रोणाचार्य दिखाई पड़े, जो समग्र चैत्यवासी आचार्यों के प्रधान मुकुट स्वरूप थे। इसलिये आचार्य अभयदेव ने उनसे सम्पर्क साधा और संशोधन कार्य के लिये उन्हें तैयार किया । आचार्य द्रोण ने भी अपने समग्र आचार्यों की चर्चा की परवाह न करते हुए, अपने विपक्षी के एक शिष्य के कार्य को हाथ में लिया। इससे उस समय के प्रमुख-प्रमुख चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य पर कुपित भी हुए, किन्तु महामना द्रोण ने उन्हें यह कहकर शान्त कियाः
प्राचार्याः प्रतिसन सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतै- . 'तुं नाऽध्यवसीयते सुचरितस्तेषां पवित्र जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, ।
यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् ।
आचार्य द्रोण ने अपनी गीतार्थता तथा उदार दृष्टि का परिचय भी अभयदेवसूरि प्रणीत समग्र टीकाओं का अवलोकन कर, संशोधन कर, प्रामाण्य की मोहर लगाकर दिया। आचार्य अभयदेव ने भी अपनी कृतज्ञता का प्रदर्शन प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ की टीका के अन्त में
वल्लभ-भारती ]
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