________________
“ते णं काले णं ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होत्था, तं जहा१. हत्थुतराहि चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते, २. हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, ३. हत्थुत्तराहिं जाए, ४. हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, ५. हत्थुत्तराहि अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने, ६. साइणा परिनिव्वुए भयवं । "
इसकी भी टीका करते हुए कुछ तपगच्छीय आचार्यों को छोड़ कर प्रायः सब ही टीका व टब्बार्थकारों ने छ ही कल्याणक स्वीकार किये हैं ।
स्थानाङ्ग सूत्र के पंचम स्थानक में पद्मप्रभु, सुविधि, शीतल आदि महावीर पर्यन्त के चौदह तीर्थंकरों के एक-एक नक्षत्र में पांच-पांच कल्याणकों की गणना करते हुए कुल ७० कल्याणकों का उल्लेख दिखाया है, उसमें भी वीर के पांच कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए:"समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था, तं जहा - हत्थुत्तराहि चुए चइत्ता गब्र्भ वक्ते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्तां जाव पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणते अणुत्तरे जाव केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने ।”
इसकी टीका करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं:
"समणे, इत्यादि । हस्तोपलक्षिता उत्तरा हस्तोत्तरा, हस्तो वा उत्तरो यासां हस्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः पञ्चसु च्यवनगर्भहरणादिपु हस्तोत्तरा यस्य स तथा, गर्भाद्-गर्भस्थानात् 'गर्भ' ति गर्भे - गर्भस्थानान्तरे संहृतः - नीतः निर्वृतिस्तु स्वातिनक्षत्रे कार्तिकामावास्थायाम् ।”
इसमें तेरह तीर्थंकरों के पाँच-पाँच कल्याणक एक-एक नक्षत्र में होने से कुल मिलाकर ६५ होते हैं और उसमें महावीर के गर्भहरणसहित केवलज्ञान प्राप्ति तक ५ कल्याणक हस्तोत्तरा नक्षत्र में हुए, स्वीकार कर ७० की संख्या पूर्ण करते हैं । इसमें निर्वाण सम्मिलित नहीं है । क्या यहाँ निर्वाण को कल्याणक न माना जाय ? और यदि उसे मानते हैं तो ६ हो ही जाते हैं । इसलिये आचार्य अभयदेवसूरि को बिशिष्ट रूप से लिखना पड़ा कि 'निर्वृतिस्तु स्वातिनक्षत्र कार्तिकामावास्यायाम्' इति । अतः यह स्पष्ट है कि शास्त्रकारों ने गर्भहरण को कल्याणक के रूप में स्वीकार किया है । यदि गर्भपरिवर्तन अतिनिन्द्य और अशुभ होता तो इसे मङ्गलमय कल्याणकों की गणना में ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं थी । इसमें ग्रहण करना सूचित करता है कि गर्भपरिवर्तन भी मङ्गलस्वरूप कल्याणक है ।
यहाँ पर यदि यह आक्षेप किया जाय कि इसमें कहीं कल्याणका शब्द की गन्ध तक प्राप्त नहीं होती, अपितु इसमें तो केवल इतना ही कहा गया है कि इस नक्षत्र में ये वस्तुएँ हुई, तो यह केवल मतिविभ्रम है, विद्वत्तापूर्ण विचार नहीं । यहाँ पर वस्तु ही कल्याणक का पर्यायवाची शब्द है । इसीसे कल्याणक ग्रहण किया जाता है। इस एकार्थक को हम यदि स्वीकार न करें तो हमारे सामने अनेक प्रकार की विप्रतिपत्तियां खड़ी हो जायेंगी । कुछ स्थलों को छोड़कर हमें कहीं भी और किसी भी शास्त्र में कल्याणक शब्द पृथक् रूप से प्राप्त नहीं होता, हमें केवल लक्षणा से ही ग्रहण करना होता है । ऐसी अवस्था में क्या हम च्यवन निर्वाण-पदप्राप्तिपर्यन्त की वस्तुओं को कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? स्थानाङ्ग सूत्र में
[ वल्लभ-भारती
७० ]