SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___ यदि हम देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना कल्याणक मानते हैं और त्रिशला की कुक्षि में संक्रमण होना कल्याणक नहीं मानते हैं तो यह कितना अयुक्त होगा? जहां हरण को अतिनिन्द्य कार्य स्वीकार करते हैं वहां विप्र कुल में उत्पन्न होना भी नीच गोत्र कर्मविपाक के उदय से मानते हैं- दोनों ही जघन्यता की कोटि में आते हैं । उस अवस्था में एक का अंगीकार और एक का त्याग कदापि युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात, च्यवन के पश्चात् जो देवोचित कर्तव्य होते हैं वे हरण के पश्चात् ही हुए हैं, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है। तथा गर्भापहरण यदि कल्याणक न होता तो आचार्य भद्रबाहुस्वामी जैसे इस अतिनिन्ध कार्य का शास्त्रों में विस्तार से वर्णन कदापि नहीं करते । उनका यह प्रतिपादन हमें एक नूतन दृष्टि प्रदान करता है कि प्रभु महावीर के कल्याणकों की संख्या हमें ५ ही स्वीकार हो तो देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होने से न मान कर गर्भहरण के बाद से ही संख्या मानें। २. शास्त्रीय उल्लेखों में हम किसी गच्छ के अथवा आचार्यों के उल्लेख न देकर कतिपय शास्त्रीय उल्लेखों पर ही विचार करते हैं: - जैनागमों में प्रथम अंग श्री आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रु तस्कन्ध, भावनाध्ययन में में वीरचरित्र का वर्णन करते हुए गणधरदेव लिखते हैं: ___ "ते णं काले णं ते णं समये णं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे यावि होत्था, तं जहा-१. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गभं वक्कते, २. हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गम्भं साहरिए, ३. हत्युत्तराहिं जाए, ४. हत्थुत्तराहिं सव्वतो सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, ५. हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुण्णे निव्वाघाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने, ६. साइणा भगवं परिनिव्वुए ।' इसकी टीका करते हुए व्याख्याकार आचार्य शीलाङ्कसूरि ने भी छ ही कल्याणक स्वीकार किये हैं। इसी प्रकार कल्पसूत्र के प्रारम्भ में भी पाठ आता है: १. इस पाठ का अर्थ नागपुरीय तपागच्छ के मुख्य प्रतिष्ठापक प्राचार्य पार्श्वचन्द्रसूरि इस प्रकार लिखते __ "श्रीमहावीर तेहना पंच कल्याणिक हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि हुआ । जिणि उत्तरा नक्षत्र प्रागलि हस्त छे ते हस्तोत्तरा कहिये, एतले उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमांहि पंच कल्याणिक हुआ। ते कल्याणिक केहा ? कहे छे - हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि स्वामी चव्या, चवीने गभि ऊपना १, हस्तोत्तरा नक्षत्रमाहि गर्भ थकी बीजे गभि संहर्या २, हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि स्वामी जन्म पाम्या ३, हस्तोत्तरा नक्षत्रमांहि xxx अणगारपणे प्रवजित हुआ एतावता संयम प्रादर्यो ४, हस्तोत्तर नक्षत्रमांहिxxxस्वामी केवली हुआ ५, साइणा स्वाति नक्षत्रे भगवंत श्रीमहावीर निर्वाण पदिइ पहता ६।। (प्राचारांग सूत्र बाबू प्रकाशन पत्र २३६ व २४२) २. पञ्चसु स्थानेषु गर्भाधान-संहरण-जन्म-दीक्षा-ज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता, अतः पञ्च हस्तोत्तरो भगवान भूदिति" इस टीका पाठ से गर्भाधानादि जिन पांच स्थानों में हस्तोत्तरा नक्षत्र होने को कहा गया है. उन पांच स्थानों में से चार को कल्याणक और एक गर्भसंहरण को अकल्याणक नहीं बताया, प्रतः छः कल्याणक ही मानना टीकाकार के अभिप्राय से यूक्तियुक्त है। वल्लभ-भारती ] [ ६६
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy