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नहीं करते हैं तो प्रभु ऋषभदेव का निर्वाण प्राप्त करना उनके स्वयं के लिये मंगलस्वरूप, आनन्दधाम-प्राप्तिरूप कदापि नहीं हो सकता तथा उनका निर्वाण कल्याणक, समाज के लिये श्रयस्कर भी नहीं हो सकता । परन्तु आश्चर्य है कि हम इसे मंगलस्वरूप कल्याणक अंगीकार करते हैं करना ही पड़ता है। अतः विचार करना चाहिये कि एक आश्चर्य को तो हम कल्याणक नहीं मानते और दो आश्चर्यों को कल्याणक रूप में स्वीकार करते हैं, क्या यह नीति उचित कही जा सकती है ?
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पुरुषचरित्र कि दशमपर्व, द्वितीय सर्ग में इसे कहते हैं
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यदि गर्भापहार मंगलमय न होता तो आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने त्रिषष्टिशलाका
मंगलस्वरूप कदापि स्वीकार नहीं करते, वे
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द्विजन्मनः । इवागते ॥ ६॥
देवानन्दा गर्भगते प्रभौ तस्य बभूव महती ऋद्धिः कल्पद्र ुम तस्या गर्भस्थिते नाथे, द्वयशीतिदिवसात्यये । सौधर्मकल्पाधिपतेः सिंहासनमकम्पत ' ॥ ७ ॥
ज्ञात्वा चावधिना देवा - नन्दा गर्भगतं प्रभुम् । सिंहासनात् समुत्थाय शक्रो नत्वेत्यचिन्तयत् ॥ ८ ॥
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कृष्णाश्विनत्रयोदश्यां चन्द्र हस्तोत्तरास्थिते । स देवस्त्रिशलागर्भे, स्वामिनं निभृतं न्यधात् ॥ २६ ॥ गजो वृषो हरिः साभिषेकश्रीः स्रक् शशी रविः । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पद्मसरः सरित्पतिः ॥ ३० ॥ विमानं रत्नपुञ्जश्च निधू मोग्निरिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वप्नान् मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रः पत्या च तज्ज्ञैश्च तीर्थकृज्जन्मलक्षणे । । उदीरिते स्वप्नफले त्रिशला देव्यमोदत ॥ ३२ ॥ गर्भस्थेse प्रभो शक्रांऽज्ञया जृम्भकनाकिनः । भूयो भूयो निधानानि न्यधुः सिद्वार्थवेश्मनि ॥ ३३ ॥
१. इस पद्य में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि स्पष्ट कहते हैं कि देवानन्दा की कुक्षि में महावीर देव के अवतरित होने के बयांसी दिवस बीत जाने पर सौधर्मेन्द्र का आसन कंपित हुआ । श्रतः शान्तिचन्द्रीय जब्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति के -- " तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्राः जीतमिति विधित्सवो युगपत्ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते" इस कथनानुसार जिसमें इन्द्रादि देवताओं का आना प्रभृति न हुआ हो उसे कल्याणक न मानने वालों को देवानन्दा की कुक्षि में वीरविभु के अवतरण को, जिसे कि हरिभद्रसूरि व अभयदेवसूरि जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों ने पंचाशक प्रकरण मूल व वृत्ति में स्पष्टतया कल्याणक माना है, इसे कल्याणक नहीं मानना चाहिये ।
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[ वल्लभ-भारती