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प्रतिपादित १४ तीर्थङ्करों के ७० कल्याणकों को अंगीकार नहीं करेंगे ? कल्पसूत्रस्थ पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि के चरित्रों में कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने से क्या हम उनको भी कल्याणक स्वीकार नहीं करेंगे ? नहीं, हमें स्वीकार करना होगा, अन्यथा कल्याणकों का ही स्पष्टतः अत्यन्ताभाव हो जायगा, जो सचमुच में शास्त्रविरुद्ध होगा । कल्याणकों का अभाव होने से इन्द्रादिक देवताओं की की हुई श्रद्धापूर्वक सम्यग् आराधना केवल ढोंग मात्र ही होगी, भक्ति नहीं । अतः कल्याणक शब्द का उल्लेख न होने पर भी हमें लक्षणा से कल्याणक ग्रहण करना ही होगा ।
यही नहीं, किन्तु तीर्थंकर का जीव पूर्वभवों में जिस भव से सम्यक्त्व अर्जन करता है वहाँ से लेकर तीर्थंकर भव तक उसके सभी भव " उत्तमभव" माने जाते हैं । कल्पसूत्रादि शास्त्रों में प्रभु महावीर का भव पोट्टिल राजपुत्र के भव से पंचम भव माना जाता है, परन्तु समवायाङ्ग सूत्र में गणधरदेव महावीर का पंचम भव देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और छट्टा भव त्रिशलारानी की कुक्षि में उत्पन्न होना और तीर्थंकर रूप से जन्म लेना मानते हैं:“समणॆ भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छुट्ट पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोड सामन्नं परियागं पा उणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्व विमाणे देवत्ताए उववन्ने । "
श्रमण तपस्वी भगवान् महावीर के पोट्टिल के भव से पाँच ही भव माने गये, यह छट्ठा भव कैसा ? इसका भ्रम न हो इसलिये टीकाकार अभयदेवसूरि स्पष्ट कर देते हैं:
"समणे, इत्यादि । किल भगवान् पोट्टिलाभिधानो राजपुत्रो बभूव । तत्र वर्ष कोटिं प्रव्रज्यां पालितवान् इत्येको भवः । ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः । ततो नन्दाभिधानो राजसूनुः छत्रानगर्यां जज्ञे इति तृतीयः । तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवर विजय पुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवत् इति चतुर्थः । ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्त ब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानाया. कुक्षौ उत्पन्न इति पञ्चमः । ततो
शीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थ महाराजस्य त्रिशलाभिधानभार्यायाः कुक्षौ इन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतः - नीतः तीर्थङ्करतया च जातः इति षष्ठः । उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं पष्ठं श्रूयते भगवतः इत्येतदेव षष्ठभवग्रह्णतया व्याख्यातं,यस्माच्च भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति, सुष्च्ठच्यते तीर्थङ्करभवग्रहणात् षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति । "
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना और उससे 1. अपहृत होकर विशलाकुक्षि में धारण होना अतिनिन्द्य या आश्चर्य नहीं किन्तु उत्तम भव है । अतः पृथक् भवनिर्देश से उत्तमभव होने के कारण यह स्वतः ही मंगलस्वरूप कल्याणक हो जाता है ।
३. पञ्चाशक प्रकरण एवं टीकाकार अभयदेवसूरि द्वारा पञ्चकल्याणक स्वीकार करना अपना निजी महत्त्व रखता है । वहाँ सामान्य रूप से २४ तीर्थङ्करों के कल्याणकों की गणना का प्रसंग होने से पांच ही कहे गये हैं, इससे ६ कल्याणक की मान्यता में यत्किञ्चित् भी बाधा नहीं आती । देखिये, चौवीस तीर्थङ्करों की सामान्य गणना में १६ वें तीर्थंकर मल्लिप्रभु की स्त्रीरूप में गणना नहीं करते हैं, किन्तु मल्लिनाथजी कहकर पुरुष रूप में गिनते
वल्लभ-भारती ]
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