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लेखक के दो शब्द
युगप्रधान प्रगट प्रभावी दादा जिनदत्तसूरिजी महाराज ने स्वरचित गणधर सार्द्ध - शतक, चर्चरी, सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र, श्रुतस्तव आदि ग्रन्थों में जिन युगप्रवर श्रीजिनवल्लभसूरि के क्रान्तिकारी विचार-सरणिका प्रतिपादन और उनके अगाध गुणगौरव का मुक्तकण्ठ से यशोगान करके अपनी वाणी और लेखनी को कृतार्थ किया है, उन्हीं स्वनामधन्य, रससिद्धकवीश्वर, प्रवर- आगमज्ञ, प्रबल क्रान्तिकारी, युगश्रेष्ठ, विधिपक्षप्रवर्त्तक, खरतरगच्छ - मुकुटमणि जैनाचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रस्तुत 'वल्लभ-भारती' नामक पुस्तक है ।
जिनवल्लभसूरि के साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन होने के कारण ही मैंने इस पुस्तक का नाम 'वल्लभ-भारती' रखा है । यह पुस्तक दो खण्डों में विभक्त है । प्रथम खण्ड में आचार्यश्री का जीवन-चरित्र, आक्षेप परिहार, आचार्य द्वारा रचित साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन और जिनवल्लभीय साहित्य की परम्परा का आलेखन है । द्वितीय खण्ड में 'जिनवल्लभसूरि रचित, वर्तमान समय में प्राप्त समग्र साहित्य का पाठभेद एवं टिप्पण के साथ मूल पाठ का सम्पादन है ।
इस वल्लभ भारती का कार्य मैंने सन् १९५२ में आरम्भ किया था । सन् १९६० में श्रद्धय डॉ० फतहसिंहजी एम. ए., डी. लिट् के निर्देशन में दोनों खण्डों का कार्य पूर्ण होने पर हिन्दी विश्वविद्यालय ( हिन्दी साहित्य सम्मेलन ) प्रयाग की उच्चतम परीक्षा 'साहित्य महोपाध्याय' के लिये मैने इस ग्रन्थ को शोध-प्रबन्ध के रूप में भेज दिया था । शोध-प्रबन्ध के रूप में यह पुस्तक स्वीकृत हुई और सन् १९६१ में सम्मेलनद्वारा मुझे 'साहित्य महोपाध्याय ' प्राप्त हुई।
सन् १९६१ से १६७५ अन्तराल में कवि निर्मित अष्टसप्तति, स्वप्नसप्तति, चतुर्विंशतिजिनस्तुति आदि नवीन कृतियां भी मुझे प्राप्त हुई । इन नवीन कृतियों के आधार पर इस प्रथम खण्ड में मैंने यत्र तत्र संशोधन एवं परिष्कार भी किया है ।
सन् १९६२ में द्वितीय खण्ड के प्रकाशन का कार्य भी मैंने प्रारम्भ करवाया था । मूल-ग्रन्थों के १६० पृष्ठ भो मुद्रित हो चुके थे । फिर भी संयोगवश आगे मुद्रण न होने से वह आज तक प्रकाशित न हो सका। आज इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड को प्रकाशित होते देखकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है ।
ग्रामोद्वार ग्रंथ :
जिनवल्लभसूरि रचित 'आगमोद्धार' नामक ग्रन्थ को अनुपलब्ध मानते हुये भी प्रस्तुत पुस्तक के पृ० ८७ की टिप्पणी में मैंने लिखा है कि- 'श्री अगरचंदजी नाहटा की