SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्याप्त विरोध सहन करना पड़ा। वहां के श्रावकों से उन्होंने रहने के लिये स्थान मांगा तो उत्तर मिला - " यहां एक चण्डिकामठ है वहां यदि ठहरना चाहें तो ठहर जांय ।" गणिजी उनके दुष्ट अभिप्राय को अच्छी तरह से समझते थे, परन्तु फिर भी वे देवगुरु के प्रसाद पर विश्वास रख के वहीं पर ठहर गये । चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान, ध्यान और अनुष्ठान से प्रसन्न हुई और उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके पास प्रतिदिन अनेक दार्शनिक ब्राह्मण आने लगे । इनमें से प्रत्येक निज निज शास्त्रों के विषय में उनसे वार्तालाप करता था और उनके उत्तर से सन्तोषलाभ करता था। धीरे धीरे उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि और उनके पाण्डित्य का प्रभाव व सुयश सर्वत्र फैल गया। जैन श्रावक भी उनकी ओर आकर्षित हुए और उनको विश्वास होने लगा कि यही एक साधु है जो सर्व संशयों को दूर करके हमारे हृदय के अन्धकार को दूर कर सकता है । गणिजी जी में जो बात सब से अधिक आकर्षण करने वाली थी वह यह थी कि उनकी 'कथनी' और 'करणी' एक थी। वे जिन सिद्धान्तवचनों की व्याख्या अपने बचनों में करते थे उन्हीं को वे अपने आचरण में भी उतारते थे । यही कारण है कि साधारण, सड्ढक, सुमति, पल्हक, वीरक, मानदेव, धन्धक, सोमिलक, वीरदेव आदि श्रावकों ने जिनवल्लभगणि को सद्गुरु के रूप में स्वीकार किया । गणिजी के चमत्कार चित्रकूट में रहते हुए जिनवल्लभगणि ने कई चमत्कारपूर्ण कार्य किए। इनका साधारण नाम का एक भक्त श्रावक एक बार उनके पास आया । वह चाहता था कि अपने जीवन में परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करलू । इसका संकल्प लेने के लिये जब वह उनके पास आया तो उन्होंने पूछा कि तुम अपने सर्व संग्रह की सीमा कितनी रखना चाहते हो ? साधारण श्रावक का वैभव साधारण ही था, अतः उसने सर्व संग्रह की सीमा २० हजार की रखनो चाही । परन्तु जिनवल्लभगणि जो अपने ज्योतिष ज्ञान से उसके भावी ऐश्वर्य को देख सकते थे, अतः उन्होंने उस सीमा को और बढाने के लिये कहा । तब साधारण ने तीस सहस्र कहे परन्तु जिनवल्लभगणि ने कहा कि "यह पर्याप्त नहीं है और अधिक बढाओ ।" साधारण को इस पर बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसके गृह की समस्त वस्तुओं का मूल्य ५०० भी नहीं होता था, फिर भी गणिजी के बारंबार आग्रह करने पर उसने एक लाख का सर्व परिग्रह निश्चित किया । स्वल्प कालान्तर में ही उसकी सम्पत्ति इतनी बढी कि वह एक लक्षाधीश कहलाने लगा और वह सम्पूर्ण संघ में अग्रगण्य हो गया । इस चमत्कार से वे सारे सेठ भी उनकी ओर आकर्षित हो गये; जो साधुओं के पास धर्म और चरित्र की शिक्षा के लिये नहीं अपितु ऋद्धिसिद्धि दोहने के लिये जाते हैं । एक दूसरा चमत्कार उन्होंने और दिखलाया । उनके ज्योतिषज्ञान की कीर्त्ति सर्वत्र फैल गई थी । एक ज्योतिषि ब्राह्मण उनके यश को सहन न कर सका और वह जिनवल्लभगणि 'नीचा दिखाने की दृष्टि से उनके पास आया । उपासकों द्वारा आसन देने के पश्चात् निम्नलिखित वार्तालाप प्रारम्भ हुआ: जि० - भद्र! आपका निवास स्थान कहां है? और आपने किस शास्त्र का अभ्यास किया है ? बल्लभ-भारती ] [ ४५
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy