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पर इससे क्या ? क्या पङ्क से पङ्कज उत्पन्न नहीं होता ?" इस प्रकार सोचते हुए भी अभयदेवसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्य - शिरोमणि भी जिस बात को न्याय, धर्म और समाजहित की सर्वथा उचित समझते थे, उसको अन्धविश्वासी समाज का विरोध सहन करके भी करते । संभवतः वे भी यही सोचकर सतुष्ट हो गए कि “यद्यपि शुद्ध लोक विरुद्ध न करणीयं नाचरणीयम्” अतः आचार्यश्री के मन की बात मन में ही रह गई और उन्होंने स्थिति को लक्ष्य में रखते हुए समाज के सामने मत्था टेककर अपनी अन्तरात्मा की पुकार के विरुद्ध अपने दूसरे शिष्य वर्धमान को आचार्य पद देकर जिनवल्लभगणि को उपसम्पदा प्रदान की और सर्वत्र विचरण करने की अनुमति प्रदान की। तत्पश्चात् आचार्य अभयदेव के संकेतानुसार प्रसन्नचन्द्राचार्य की आज्ञा से उनके पश्चात् देवभद्राचार्य ने इनको पट्टधर बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु जब जिनवल्लभरि को यह पद प्राप्त हुआ, तो उनके जीवन का सूर्य अस्त होने
वाला था ।
चित्रकूट गमन
उपसम्पदा ग्रहण करके वे कुछ दिन गुर्जरप्रदेश में विहार करते रहे, परन्तु यहां उन्हें सुविहित सिद्धान्त प्रचार में वैसी सफलता नहीं मिली जैसी कि वे चाहते थे। उस समय गुजरात चैत्यवासियों का सबसे बड़ा गढ़ था। यहां पर जिनवल्लभगणि जैसे क्रान्तिकारी विचारक, कटु आलोचक और निर्भय वक्ता की दाल गलना सरल न था । यह तो अभयदेवाचार्य जैसे सुलझे हुए और व्यवहार कुशल व्यक्ति का ही काम था, जो चैत्यवासियों के प्रधानाचार्य आचार्य द्रोणसूरि तक से समुचित सन्मान प्राप्त कर सके और अपने नवाङ्गों की टीका पर उनकी छाप लगवा कर चैत्यवासियों द्वारा मान्य भी करा सके । परन्तु जिनवल्लभगणि दूसरे ही प्रकार के व्यक्ति थे, वे जिनका विरोध करते थे उसका बड़े उग्ररूप में; और उन्हें किसी विषय में और किसी समय शिथिलता तनिक भी पसन्द नहीं थी । इनकी असफलता का एक कारण यह भी हो सकता है चैत्यवास त्याग करने से चैत्यवासी इनको अपना शत्र सा समझने लगे होंगे और चैत्यवास के संसर्ग में रहने के कारण वमतिमार्गियों से उन्हें समुचित आदर एवं सहयोग न मिला होगा। इसी कारण संभवतः उन्होंने गुर्जरप्रदेश को छोड़ कर मेदपाट (मेवाड़) में जाना स्वीकार किया । यद्यपि वहां भी सर्वत्र चैत्यवासियों का जोर था, परन्तु नये प्रदेश में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए अपना स्थान बना लेना अधिक सरल होता है । 'घर का जोगी जोगिया, आन गांव का सिद्ध' यह कहावत प्रसिद्ध ही है। इसी के अनुसार महात्मा गौतम बुद्ध को जो आदर बाहर मिला वह उनकी जन्मभूमि कपिलवस्तु में नहीं ; भगवान् महावीर को भी लिच्छवी गण में सफलता तव ही मिली जब वे अन्यत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । यही बात आधुनिक काल में आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द के जीवन में भी हुई । अतः जिनवल्लभगणि को मेदपाट में अधिक सफलता प्राप्त होना स्वाभाविक ही था ।
मेदपाट प्रदेश में जाकर उन्होंने पहिले पहल चित्रकूट ( चितोड़ ) में कुछ दिन बिताने का निश्चय किया । वहां पर उनके गुरु आचार्य अभयदेव की कीर्ति और प्रतिष्ठा पर्याप्त थी । अतः वहां के लोग उनका कोई बिगाड़ तो न कर सके परन्तु फिर भी उन्हें कुछ क्षुद्रजनों का
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[ वल्लभ-भारती