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नकल भागना, त्याग मार्ग स्वीकार करना साधारण कार्य न था । जिनवल्लभगणि के मन में भी परिस्थिति की गम्भीरता आई और उन्होंने सोचा कि संभवतः जिनेश्वराचार्य के चैत्य में पहुँच कर पूर्वस्मृतियां अत्यधिक वेग से जागृत हो उठेंगी और उस समय अपने संकल्प पर दृढ़ रहना कठिन हो जायगा । इसीलिये उन्होंने वहां न जाकर निकटवर्ती माइयड ग्राम में ही रह कर अपने गुरु को पत्र लिखकर मिलने के लिये बुलाया । पत्र में उन्होंने लिखा था- "मैं गुरु से विद्याध्ययन करके माइयड ग्राम आ गया हूं, यदि भगवन् ! यहीं आकर मुझ से मिलेंगे तो अति कृपा होगी ।" यह पत्र पढ़कर जिनेश्वराचार्य को बहुत आश्चर्य और दुःख हुआ । परन्तु फिर भी वे बड़े समारोह के साथ शिष्य को लेने माझ्यड ग्राम गये । यह सुन ही कि गुरुजी अनुग्रह करके पधारे हैं, जिनवल्लभगणि गद्गद हो गये और तत्काल उनके सामने पहुंचे और विधिवत् प्रणाम किया । स्नेह की सरिता उमड उठी । गुरु ने क्षेमकुशल पूछी, उसका उन्होंने यथोचित उत्तर दिया । इसी समय उनको अपना ज्योतिष का ज्ञान दिखाने का भी अवसर उपस्थित हुआ। एक ब्राह्मण वहां आया और उसने ज्योतिष की कई समस्याओं को उपस्थित किया । जिनवल्लभगणि द्वारा उनका समुचित समाधान देखकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और उनके हृदय में अपार हर्ष एवं उल्लास उत्पन्न हो गया । ऐसी अवस्था में जिनवल्लभगणि के आसिका न जाने से उनके मन में जो शंका उत्पन्न हुई थी वह एक पहेली बनकर उनके मन में फिर उठी और उन्होंने पूछा कि, जिनवल्लभ ! यह क्या बात है कि तुम सीधे आसिका के अपने चैत्यवास में न आये और मुझे यहां बुलाया ? यह जिनवल्लभगणि के संकल्प, संयम और धैर्य की परीक्षा का समय था । कोई साधारण जन होता तो ममता और मोह के ऐसे पारावार में डूब गया होता, परन्तु जिनवल्लभगणि ने अत्यंत दृढ़ता के साथ विनीत स्वर में कहा - "भगवन् ! सद्गुरु के श्रीमुख से जिन वचनामृत का पान करके भी अब उस चैत्यवास का सेवन कैसे करू ? जो कि मेरे लिये विष-वृक्ष के समान है ।" यह सुनते ही आचार्य जिनेश्वर की आशाओं पर तुषारापात हो गया । उस समय उनकी दशा बड़ी दयनीय थी । वे बोले -"जिनवल्लभ ! मैंने यह सोचा था कि मैं अपना उत्तराधिकार देकर और चैत्यालय, गच्छ तथा श्रावक संघ का सारा भार तुम्हें सौंप कर स्वयं सद्गुरु के पास जाकर वसतिवास को स्वीकार करूंगा ।" उनके यह वचन सुनकर जिनवल्लभगणि का मुख हर्षोल्लास से जगमगा उठा और वे बोले-“भगवन् ! यह तो बहुत ही सुन्दर बात है । हेय वस्तु का परित्याग करके उपादेय वस्तु का ग्रहण करना ही विवेक का काम है, अतः दोनों एक साथ ही सद्गुरु के समीप चलकर सन्मार्ग को स्वीकार करें।" यह सुनकर जिनेश्वराचार्य ने एक दीर्घ निःश्वास ली और करुण स्वर में कहा कि- ' बेटा ! मुझ में इतनी निःस्पृहता कहां कि गच्छ चैत्य आदि को ऐसे ही छोड़ दूं ? हाँ, जब तुम तुल गये हो तो अवश्य वसतिवास को स्वीकार करो। "
इस प्रकार गुरु से अनुमति प्राप्त करके वे पुनः पत्तन में गये और अभयदेवसूरि को अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया। आचार्य अभयदेव भी हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा कि मैंने इसको जैसा योग्य समझा था वैसा ही सिद्ध हुआ । उनके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि - " जिनवल्लभ ही हमारा उत्तराधिकारी ( पट्टधर ) होने के सर्वथा योग्य है, परन्तु क्या उसको समाज स्वीकार करेगा ? वह एक चैत्यवासी आचार्य का शिष्य था,
वल्लभ-भारती ]
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