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________________ का स्मरण करते हैं तो "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः " कह कर उन चैत्यवासी आचार्य को भी नहीं भूलते। इससे सिद्ध होता है कि जिनेश्वराचार्य भी बड़े प्रकाण्ड पण्डित थे । उन्होंने जो ग्रन्थ संभवतः जिनवल्लभ को पढ़ाये, उसमें पाणिनीय आदि के आठों व्याकरण, मेघदूतादि काव्य, रुद्रट, उद्भट, दण्डी, वामन और भामह आदि के अलङ्कार ग्रन्थ, ८४ नाटक, जयदेव आदि के छन्दःशास्त्र के ग्रन्थ, भरत नाट्य और कामसूत्र, अनेकान्त जयपताकादि जैन न्यायग्रन्थ तथा तर्ककंदली, किरणावली, न्यायसूत्र तथा कमलशीलादि जैनेतर दार्शनिक ग्रन्थ थे । एक और ग्रन्थ या ग्रन्थकार जिसका उल्लेख उनकी विद्वत्ता के प्रसंग में मिलता है वह है "शङ्करनन्दन" । यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि शङ्करनन्दन से अभिप्राय किससे है ? संभवतः यह कोई वेदान्ती आचार्य रहा हो । चैत्यवास त्याग और उपसम्पदा ग्रहण पत्तन में विद्याध्ययन समाप्त करने के पश्चात् जब वे अपने गुरु जिनेश्वराचार्य के पास वापिस जाने लगे तो आचार्य अभयदेवसूरि ने कहा कि "बेटा ! सिद्धान्त के अनुसार जो साधुओं का आचार-व्रत है वह तुम सब समझ चुके, अतः उसके अनुसार जिस प्रकार आचरण कर सको बैसा ही प्रयत्न करना।" यह वस्तुतः जिनवल्लभगणि के अन्तरात्मा की पुकार थी । उनके मन में चैत्यवास के प्रति अरुचि और वसतिवास के प्रति उत्कट प्र ेम पहिले से ही उत्पन्न हो चुका था, अतः जिनवल्लभगणि ने भी अभयदेवाचार्य के चरणों पर गिर कर कहा कि "गुरुदेव ! आपकी जो आज्ञा है वैसा ही निश्चित रूप से करूंगा।" इस वचन का पालन उन्होंने मार्ग में ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसे ही मरुकोट (मरोट) में पहुंचे, (जहाँ ि उन्होंने आते समय देवगृह की स्थापना की थी) तो उन्होंने देवगृह में एक विधिवाक्य के रूप में निम्नलिखित श्लोक लिखा, जिसका पालन करके अविधिचैत्य भी विधिचैत्य होकर मुक्ति का साधन बन सके : प्रत्रोत्सूत्रिजनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममतामयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि । जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलमि त्याज्ञाऽऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीजैन चैत्यालये ॥१॥ अब उन्होंने जिनेश्वराचार्य से पृथक् होने का दृढ़ संकल्प कर लिया था । यह कोई सरल कार्य नहीं था । उस बूढ़े की जिनवल्लभजी पर प्रगाढ ममता थी और इनका भी उनके प्रति अनुराग और भक्तिभाव होना स्वाभाविक था । अतः इस सुदृढ़ स्नेह - बन्धन को काट कर १. ४२ ] - कः स्यादम्भसि बारिवायसवति ? क्व द्वीपिनं हन्त्ययं ? लोके प्राह हयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः ? ब्रूते पालयितात्र दुर्धरतरः कः क्षुम्यतोम्भोनिधेब्र ूहि श्रीजिनवल्लभ ! स्तुतिपदं कीदृग्विधाः के सताम् ? ।। १५ ।। उत्तरं - "मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः” [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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