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वासी आचार्य के लिये संकट से खाली नहीं था। इसलिये श्रीअभयदेवसूरि के मन में भी संशय उठा कि वह जिनवल्लभ को वाचना दें या नहीं? परन्तु जब उनको विश्वास हो गया कि जिनवल्लभ के मन में सिद्धान्त-वाचना के लिये उत्कृष्ट अभिलाषा है और उसके लिये उपयुक्त पात्रता भी है तो उन्होंने सोचा कि:
. "मरिज्जा सह विज्जाए, कालम्मि प्रागए विऊ।
प्रपत्तं च न वाइज्जा, पत्तं च न विमारणए ॥" अर्थात्-अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले मर जाय, परन्तु अपात्र को शास्त्रवाचना न करावे और पात्र के आने पर उसका (वाचना न कराके) अपमान न करे। इसलिये उन्होंने गणि जिनवल्लभ को वाचना देना स्वीकार कर लिया। जैसेजैसे जिनवल्लभगणि अपने विद्याभ्यास से उन्हें सन्तुष्ट करते गये वैसे ही वे विद्यादान में अधिकाधिक उत्साही होते गये । इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने थोड़े से समय में ही सारे सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। जिनवल्लभगणि की प्रखरबुद्धि और ज्ञान पिपासा को देखकर आचार्य ने उन्हें एक बहुत बड़े ज्योतिषज्ञ के पास भेजा। इस विद्वान् ने आचार्ग से पहले ही कह रखा था कि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो उसे मेरे पास भेजें, जिससे मैं उसको अपना समग्र ज्योतिष-ज्ञान सिखला दूं। योग्य शिष्य को पाकर किस गुरु
का मन प्रसन्न न होगा ? वह ज्योतिषाचार्य भी जिनवल्लभगणि जैसे छात्र को पाकर बहुत ' सन्तुष्ट हुआ और उसने उन्हें अपनी सारी विद्या सिखा दी। उन्होंने कौन-कौन से ग्रन्थ पढ़े इसका तो पता नहीं चलता, परन्तु इस सम्बन्ध में सुमतिगणि और जिनपालोपाध्याय दोनों ने ही यही लिखा है कि उन्होंने “सर्व ज्योतिषशास्त्र" पढ़े थे। - जिनवल्लभगणि की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए उक्त दोनों लेखकों ने जिन लेखकों का और ग्रन्थों का उल्लेख किया है उनसे पता चलता है कि उन्होंने जैन-सिद्धान्त और ज्योतिष शास्त्र के अरिरिक्त और भी बहुत ग्रन्थ पढ़े थे । पत्तन में उन्होंने जो अध्ययन किया उसमें जैन-दर्शन और ज्योतिष शास्त्र के अतिरिक्त किन्हीं अन्य ग्रन्थों के अध्ययन करने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः यह मानना पड़ेगा कि इनके अतिरिक्त उन्होंने जो कुछ अध्ययन किया उसके लिए तो अधिकांशतः वे चैत्यवासी जिनेश्वराचार्य के ही ऋणी थे। यही कारण है कि वे अपने प्रश्नोत्तरैकषष्टि शतक काव्य में जहां अपने 'सद्गुरु अभयदेवाचार्ग'
पाके धातूरवाचि कः? क्व भवतो भीरोमनः प्रीतये? सालङ्कारविदग्धया बद कया रज्यन्ति ? विद्वज्जनाः । पाणी किं मुरजिद् बिति ? भुवि तं ध्यायन्ति ? के वा सदा, के वा सद्गुरवोत्र चारुचरणश्रीसुश्रु ता विश्रु ताः ॥१५८।।
उत्तरम्-"श्रीमदभयदेवाचार्याः"
वल्लभ-भारती]
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