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बहुत प्रसन्न हुए कि जिनवल्लभ ने सारा प्रबन्ध बड़ी कुशलता के साथ किया और उसमें कोई भी कमी नहीं आने दी।
अपने गुरु के प्रवास काल में बालक जिनवल्लभ को संयोगवश एक वस्तु और मिली, जिसका महत्त्व संभवतः उस समय उनको न मालूम हुआ होगा, परन्तु कौन कह सकता है कि उनके जीवन की दिशा को बदलने में उसने अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा काम नहीं किया ! घटना इस प्रकार है: --
जब जिनेश्वराचार्य दूसरे ग्राम में चले गये तब बाल-सुलभ कौतूहलवश उन्होंने एक पुस्तकों से भरी हुई पेटी की छान-बीन प्रारम्भ की। उसमें उनको एक सिद्धान्त-पुस्तक मिली । उस पुस्तक में उन्होंने जो पढ़ा उससे उन्हें पता चला कि चैत्यवासियों का जो आचारविचार है वह ( दसवैकालिक आदि ) सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है । उसमें लिखा था" साधु को ४२ दोषों से रहित होकर गृहस्थों के घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन उसी प्रकार लाना चाहिए जिस प्रकार मधुकर विभिन्न फूलों से रस को एकत्र करता है । इस वृत्ति के द्वारा साधु की देहधारणा हो जाती है और किसी को कष्ट भी नहीं होता। साधुओं को एक स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए और न सचित्त फूल - फलादि को स्पर्श ही करना चाहिये ।” यह पढ़ते ही बालक जिनवल्लभ का मन उद्व ेलित हो उठा और उन्होंने सोचा, "अहो ! अन्य एव स कश्चिद् व्रताचारो, येन मुक्तौ गम्यते, विसदृशस्त्वस्माकमेष समाचारः, स्फुटं दुर्गतिगर्तायां निपततां एतेन न कश्चिदाधारः" अर्थात् "अहो ! जिससे मुक्ति प्राप्त होती है वह तो व्रत और आचार कोई दूसरा ही है, हमारा तो यह आचार बिल्कुल विपरीत ही है। हम तो स्पष्टतया ही दुर्गंति के गड्ढे में पड़े हुए हैं और हम बिल्कुल निराधार हैं ।"
अभयदेवसूरि से विद्याध्ययन
महापुरुषों के जीवन का यह एक व्यापक रहस्य है कि उनके मन में उठने वाले महत्त्वपूर्ण संकल्पों की सिद्धि का मार्ग स्वतः ही तैयार हो जाता है । जिनवल्लभ के विषय में भी यही हुआ । उनके मन में साधु के सच्चे व्रताचार के लिये जो उत्कण्ठा थी उसके लिये समुचित साधन स्वतः ही उपस्थित हो गये। जिनेश्वराचार्य ने स्वयं सोचा कि जिनवल्लभ
सिद्धान्त-ग्रन्थों की शिक्षा दिलवाना आवश्यक है । उस समय सिद्धान्त-ग्रन्थों के ज्ञान में श्री अभयदेवसूरि की बड़ी प्रसिद्धि थी । उन्होंने जिनवल्लभ को उन्हीं आचार्य के पास पाण में भेज दिया । सिद्धान्त-ग्रन्थ पढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि पढ़ने वाला व्यक्ति अधिकारी हो; यही अधिकार प्रदान करने के लिए उन्हें वाचनाचार्य बनाकर भेजा ।' जिनवल्लभगणि के साथ उनके गुरुभ्राता जिनशेखर भी गये ।
उन दिनों चैत्यवासियों और वसतिवासियों में पर्याप्त संघर्ष रहा करता था, अतः एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य को आगम की वाचना देना स्वीकार कर लेना एक वसति
१. यहां से आपकी ख्याति ""जनवल्लभ गरिण" के नाम से हुई ।
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[ वल्लभ-भारती