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________________ निर्धन छात्रों को भोजन, वस्त्र भी मुफ्त मिलता था। कुलीन स्त्रियां भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा यथावत् कायम थी। पाटण में मयणल्लदेवी और कर्णाट में मृणालवती शासन-कार्यों में भी भाग लेती थीं। राजघराने की स्त्रियों को संगीत व नृत्यकला का अभ्यास भी कराया जाता था। वे सवारी व तलवार चलाना सीखती थीं। पर्दा प्रथा न थी। स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी। पर अधिकतर विवाह माता-पिता की सम्मति से हो जाते थे। राजकूलों में विवाह का राजनीतिक महत्व भी देखा जाता था। विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था। जैनाचार्यों की समाज के सभी वर्गों म अप्रतिहत गति थी। वे सब जगह जाकर सब लोगों को समान रूप से प्रतिबोध दिया करते थे। राज-दरबार से लेकर कर्मियों की झोंपड़ी तक में उनका समान रूप से सम्मान होता था। कई राजाओं ने जैन-धर्म स्वीकार किया था। जाति-भेद की बढ़ती हुई दीवारों को रोकने में इस समय जैनाचार्य सबसे बड़े प्रतिरोधक थे। ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ के अतिरिक्त निम्न जातियां भी जैन-धर्म का अवलम्बन ले रही थी। कई हण, शक आदि विदेशी जातियां भी जैन-धर्म ग्रहण कर चुकी थी। पजाब का शाही वंश भी विदेशी था; परन्तु तत्कालीन भारत की सीमान्त की रक्षा के लिए उसी ने यवनों से टक्कर ली। जैन-धर्म का प्रभाव गुजरात, मालवा, राजस्थान आदि क्षेत्रों में अधिक था। गुजरात में विशेषकर मेहताओं का बड़ा जोर था। . . सामान्य लोग अपने योग्य शासकों के बल पर निर्भय होते हुए भी विदेशी आक्रमणों से बेखबर न थे। वे अपने देश पर अभिमान करते थे। अल्बरुनी का यह कथन इस बात. को प्रमाणित करता है-"हिन्दू ऐसा विश्वास करते हैं कि उनके देश के समान दूसरा देश नहीं, उनके विज्ञान के समान दूसरा विज्ञान नहीं।" अपनी इस राष्ट्रीय-भावना के आधार पर वे देश की रक्षा करने को तत्पर थे। आनन्दपाल ने जब महमद गजनवी का प्रतिरोध करने के लिये राष्ट्रीय संगठन करना चाहा, उस समय धनी-निर्धन सभी ने कुछ न कुछ द्रव्य इस काम के लिये दिया था। यहां तक कि स्त्रियों ने भी अपने आभूषण बेच कर, चर्खा कात कर इस कार्य के लिये द्रव्य जुटाया था। यह ध्यान देने की बात है कि आनन्दपाल स्वयं विदेशी वंश का था। इससे स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि भारतीय-समाज उस समय राष्ट्रीयता की भावना से अपरिचित न था। राजपूत लोग देशभक्ति में सबसे आगे थे। देश के लिये रणक्षेत्र में मर जाना वे सौभाग्य की बात समझते थे। स्त्रियां उन्हें हर्षित होकर युद्ध के लिये भेजती थीं। पति के मरने पर वे सती हो जाती थीं। युद्ध से भाग जाना अत्यन्त निन्दनीय पाप माना जाता था। राजपूत लोग अपना रक्त समाज में सबसे शुद्ध समझते थे । प्रत्येक राजपूत वंश की इसी दृष्टि से किसी देवता या प्रसिद्ध वीर पुरुष से उत्पत्ति खोज ली गई । प्रत्येक उत्कृष्ट काम को करने के लिये राजपूत सदा तैयार रहते थे। स्वामिभक्ति, शरणागत-वत्सलता, स्त्री-सम्मान और वचन पालन करने में राजपूत अद्वितीय थे। कभी-कभी तो वे इन कार्यों १. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का इतिहास : लूनिया १२ ] [ वल्लभ-भारती
SR No.002461
Book TitleVallabh Bharti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherKhartargacchiya Shree Jinrangsuriji Upashray
Publication Year1975
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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